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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास(३) श्रीपार्श्ववनाथ मन्दिरः श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के करकमलों से ही सम्पन्न यह जिनालय गाँव के मध्य में है। इसको कब, किसने हुआ था। यह प्रतिष्ठा-महोत्सव मरुधर के १५० वर्ष के इतिहास में बनाया और किस गच्छ के मनिपंगव ने प्रतिष्ठित किया यह आहोर के प्रतिष्ठोत्सव (१९५५) के पश्चात् दूसरा था। अज्ञात है। अनुमानतः ज्ञात होताहै कि ऊपर वर्णित श्रीआदिनाथ प्रतिष्ठाप्रशस्ति:चैत्य से यह प्राचीन है। इसकी स्तम्भमाला के एक स्तम्भ पर वीरनिर्वाणसप्तति-वर्षात्पार्श्वनाथसंतानीयः । ॐना++++ढ़ा' लेखाक्षर अवशिष्ट हैं। इससे ज्ञात होता है कि विद्याधरकुलजातो, विद्यया रत्नप्रभाचार्यः ।।१।। महामात्य श्री नाहड़ के द्वितीय पुत्र श्री ढाकलजी द्वारा निर्मित द्विधा कृतात्मा लग्ने, चैकस्मिन् कोरंट ओसियायां । यह मन्दिर हो और इसी से अमात्य के नाम के आगे मंगल का वीरस्वामिप्रतिमा-मतिष्ठपदिति पप्रथेऽथ प्राचीनम् ।।२।। संसूचक ॐ लगाया हो। श्रीमहावीर मन्दिर के स्तम्भों पर भी देवड़ा ठक्कुर विजयसिंहे, कोरंटस्थ वीरजीर्णबिम्बम् । 'ॐना०००ढ़ा' लिखा हुआ मिलता है। संभवतया उक्त मंत्रीपुत्रने उत्थाप्य राधशुक्ले निधिशरनवेन्दुके पूर्णिमा गुरौ ।।३।। प्राचीन श्री वीर मन्दिर का भी उद्धारकार्य करवाया हो। इस सुस्थिषभे लग्ने, तस्य सौधर्मबृहत्तपोगच्छीयः । पार्श्वनाथ मन्दिर का उद्धार विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी में कोरटा श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिः प्रतिष्ठांजनशलाके चक्रे ।।४।। के ही नागोतरागोत्रीय किसी श्रावक ने करवाया था। तत्पश्चात् कोरंटवासिमूतामोखासुतकस्तूरचन्द्रयशराजौ । दत्वोदधिशतमेकं श्रीमहावीरप्रतिमामतिष्ठिपत्ताम् ।।५।। समय-समय पर कुछ अंशों में उद्धार-कार्य होता रहा है। इसमें हरनाथसुतष्टेकचन्द्रस्तच्चैत्यकोपरि । पहले श्रीशान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा मूलनायक केस्थान कलशारोपणं चक्रे, भूबाणगुणदायकः ।।६।। पर विराजमान थी। उसके विकलांग हो जाने पर उसके स्थान पर पोमावापुरवासी हरनाथात्मजः खुमाजी श्रेष्ठी । श्रीपार्श्वनाथजी की प्रतिमा विराजित की गई। जिसकी प्राणप्रतिष्ठा पृथ्वीशरसमुद्रां प्रदाय ध्वाजामारोपयामास ।।७।। श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वजी महाराजने की है। श्री पार्श्ववनाथजी ओसवालरतनसुता हीरचेन नवलकस्तूरचन्द्रा । के दोनों ओर विराजित प्रतिमा भी नूतन हैं। शशिवसुकरदा दण्ड-मतिष्ठिपन् कलापुरावासिनस्ते ।।८।। (४) श्रीकेशरियानाथ का मन्दिर : राजेन्द्रसूरिशिष्यवाचकः मोहनविजयाभिधो धीरः । लिलेख प्रशस्तिमेनां, गुरुपदकमलध्यानशुभंयुः ।।९।। विक्रम संवत् १९११ जेठ सुदि ८ के दिन प्राचीन श्री वीर ।।इति श्रीकोरंटपुरमण्डन-श्रीमहावीरजिनालयस्य प्रतिष्ठाप्रशस्तिः ।। मन्दिर के कोट का निर्माण कार्य करवाते समय कहीं बाईं ओर की जमीन के एक टेकरे को तोड़ते समय श्वेत वर्ण की पाँच - सं. १९५९ वैशाख सुदि १५ । मु. कोरटा मारवाड - फीट प्रमाण की विशालकाय श्रीआदिनाथ भगवान की पद्मासनस्थ (२) श्री भाण्डवा तीर्थ और इतनी ही बड़ी श्रीसंभवनाथ तथा श्रीशान्तिनाथजी की कायोत्सर्गस्थ मनोहर एवं सर्वांगसुन्दर अखण्डित दो प्रतिमायें यह भाण्डवा अथवा भाण्डवपुर नाम का ग्राम जोधपुर से निकली थीं। इन कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं को विक्रम संवत् ११४३ राणीबाड़ा जानेवाली रेल्वे लाइन के मोदरा स्टेशन से २२ मील दूर उत्तर-पश्चिम में चारों ओर से रेगिस्तान से घिरा हुआ है। यहाँ वैशाख सुदि द्वितीया गुरुवार को श्रावक रामाजरुक ने बनवाया जैनेतरों के २०० घर आबाद हैं । यह ग्राम और मंदिर बहुत और बृहद्गच्छीय श्रीविजयसिंहसूरिजीने इनकी प्रतिष्ठांजनशलाका की। श्रीआदिनाथ प्रतिमा पर लेखादि नहीं है । इन प्रतिमाओं को प्राचीन है । सर्वप्रथम जालोर (जाबालीपुर) के परमार भाण्डुसिंह ने इसको बसा कर इस पर शासन किया था। उसके वंशजों ने भी विराजमान करने के हित कोरटा के श्रीसंघ ने श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से यह कितनी ही पीढ़ियों तक शासन किया। वि.सं. १३२२ में बावतरा के दय्या राजपूत बुहड़सिंह ने परमारों को परास्त कर इस पर विशालकाय दिव्य एवं मनोहर मन्दिर बनवाया है। इसका प्रतिष्ठा __ अपना अधिकार स्थापित किया था । इसके वंशजों ने शनैः महोत्सव विक्रम संवत् १९५९ वैशाख सुदि पूर्णिमा को शनैः इस प्रान्त में सर्वत्र स्थान-स्थान पर अपना शासन darkandaritorionitomodiramidnianitoniraminiromira१४३Handirirandirbromidnidadariridvioriraniraniwariwarian Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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