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________________ जैसलमेर : पुरातात्त्विक तथ्य भारत की पश्चिमी सीमा का प्रहरी जैलसमेर नगर अपने कलापूर्ण जिनालयों और ताड़पत्रीय ग्रंथों के लिए विश्वविश्रुत है। गत सौ-सवासौ वर्षों में अनेक पुरातत्त्वज्ञ, कला-मर्मज्ञ, पर्यटक एवं तीर्थ यात्रीगण उस दुर्गम प्रदेश में अपनी प्राचीन ग्रंथादि एवं इतिहास की शोध - रुचि के कारण भयानक कष्ट उठाकर जाते रहे हैं। क्योंकि वहाँ मार्ग में जलाभाव स्वाभाविक है। वहाँ सैकड़ों तालाब आदि हैं, किन्तु वर्षा तीसरे वर्ष होती है और दुष्काल का ठावा-ठिकाना माना जाता रहा है। कहा भी जाता है कि-'पग पूगल धड़ मेड़ते बाहां बाहड़मेर, भूल्यो चुक्यो बीकपूर ठावो जेसलमेर। ' वहाँ के ज्ञानभण्डार देखने विदेशी विद्वान् भी गए। जैनाचार्य श्री जिनकृपाचंद्र सूरिजी, श्री हरिसागरसूरिजी मुनिश्री पुण्यविजयजी पुरातत्त्वाचार्य जिनविजयजी आदि ने सुव्यवस्थित करने का प्रशंसनीय कार्य किया तथा गायकवाड़ सरकार ने चिमनलाल डाह्याभाई तथा पं. लालचंद भगवान दास गांधी ने वहाँ के ग्रंथों की सूची भी प्रकाशित की थी। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने विशेष रूप से कार्य किया, अंत में जोधपुर निवासी स्वर्गीय जौहरीमलजी पारख ने ग्रंथों का फिल्मीकरण भी करवाया। Jain Education International भँवरलाल नाहटा... उनके स्वर्गवास को साठ वर्ष बीत जाने पर भी प्रकाशित नहीं हो सका है ? जब श्री हरिसागरसूरिजी का जैसलमेर ज्ञानभण्डार के निरीक्षण/ शोध के लिए विराजना हुआ तब काकाजी अगरचंदजी के साथ वहाँ जाकर २५ दिन हम रहे और नाहरजी के प्रकाशित किए हुए लेखों को मिलाकर संशोधन किया और छूटे हुए अवशिष्ट २७१ लेख संग्रह कर बीकानेर जैनलेखसंग्रह के साथ प्रकाशित किए। नाहरजी का प्रकाशन आज से ६७ वर्ष पूर्व हुआ था। सन् १९३६ में तो उनका स्वर्गवास ही हो गया था । आर्यावर्त में सर्वप्राचीन जैनधर्म है और इसमें अनादिकाल से मूर्तिपूजा का प्रचलन रहा है। अन्यधर्मो में मूर्तिपूजा जैन धर्म के बाद ही चली थी, यों देवलोक, नंदीश्वर, द्वीपादि में सर्वत्र अनादिकाल से प्रथा चली आना सिद्ध है। मूर्तिपूजा का विरोध मुस्लिम शासनकाल में ही हुआ और उनकी संस्कृति के प्रभाव से जैनधर्म में भी यह दुष्प्रभाव फैला। किसी भी नगर गाँव के बसने से पूर्व अपने इष्टदेव का मंदिर निर्माण करना अनिवार्य था। जैसलमेर बसने से पूर्व लौद्रवाजी में प्राचीनतम मंदिर था। आज जो चार सौ वर्ष प्राचीन मंदिर है, वह जैसलमेर के निवासी धर्मनिष्ठ सेठ थाहरुशाह भणशाली द्वारा निर्मित है, उसके नीचे वाले भाग के घिसे हुए पत्थर स्वयं यह उद्घोष कर रहे हैं कि वे सहस्त्राब्दि पूर्व के निश्चित रूप से हैं। लौद्रवपुर तथा राजस्थान के विभिन्न स्थानों से आए हुए जैन श्रावकों ने वहाँ अपने निवासस्थान में अनेकों गृहचैत्यालय तथा किले में जिनालय का निर्माण कराया था। लौद्रवपुर वीरान हो गया। सन् १९२९ में स्वनामधन्य श्री पूरनचंदजी नाहर ने वहाँ के शिलालेख व प्रतिमा लेखों का संग्रह करके इतिहास के साथ ४७९ अभिलेख, जैनलेखसंग्रह का तृतीय भाग जैसलमेर नाम से सचित्र प्रकाशित किया। उन दिनों मैं उनके संपर्क में आने से प्रायः रविवार को उनके यहाँ जाता और हस्तलिखित ग्रंथों व अन्य सामग्री का आवश्यकतानुसार निरीक्षण करता। उनका संग्रह देखकर हमने भी संग्रह कार्य प्रारंभ किया । फलस्वरूप आज हम सवा-डेढ़ लाख ग्रंथों तथा पुरातत्त्व सामग्री का संग्रहालय, कलाभवन, बीकानेर में स्थापित कर सके । नाहरजी ने जैनलेखसंग्रह ३ भाग निकाले । वे बंगाल के जैनों में सर्वप्रथम ग्रेजुएट और पुरातत्त्ववेत्ता थे। जब जैलसमेर का तृतीय खण्ड छप रहा था तब मैंने भी अपने संग्रह के ऐतिहासिक स्तवनादि प्रकाशित करवाए थे। नाहरजी ने मथुरा के अभिलेखों का हिन्दी व अँग्रेजी अनुवाद सहित ग्रंथ तैयार किया था, पर वह अद्यावधि [ ११३ नाहरजी ने किले के मंदिरों के फुटनोट में लिखा है कि वृद्धिरत्नमाला में वृद्धिरत्नजी ने श्री पार्श्वनाथजी का मंदिर संवत् १२१२ में प्रतिष्ठा का समय लिखा है परंतु यह जैसलमेर नगर की स्थापना का समय है। मंदिर तो २५० वर्ष बाद बने थे। मंदिर - प्रतिष्ठा का वर्णन और संवत् प्रशस्ति में स्पष्ट है । नाहरजी का यह लेख वर्तमान परिवेश की अपेक्षा ठीक है, किन्तु मंदिर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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