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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्राप्त होता है। इस गच्छ से संबद्ध मात्र कुछ दाताप्रशस्ति तथा ११९६ से वि.सं. १६६४ तक के हैं। निष्कर्ष के रूप में कहा जा बड़ी संख्या में प्रतिमालेख प्राप्त होते हैं। ये लेख वि.सं. १६१२ सकता है कि वि.सं. की १२वीं शती में यह गच्छ अस्तित्व में तक के हैं। लगभग ४०० वर्षों के अपने अस्तित्वकाल में इस आया और वि.सं. की १७वीं शती के अंतिम चरण तक विद्यमान गच्छ के अनुयायी श्रमण शास्त्रों के पठन-पाठन की अपेक्षा रहा। इसके पश्चात् इस गच्छ का कोई उल्लेख न मिलने से यह जिन-प्रतिमा की प्रतिष्ठा में अधिक सक्रिय रहे। प्रतीत होता है कि इस गच्छ के अनुयायी अन्य किन्हीं गच्छों में खंडिलगच्छ२० इस गच्छ के कई नाम मिलते हैं यथा साम्मालत हा गए होग। भानडारगच्छ, कालिकाचार्यसंतानीय, भावडगच्छ, खरतरगच्छ चन्द्रकुल के आचार्य वर्धमानसूरि के शिष्य भावदेवाचार्यगच्छ, खंडिल्लगच्छ आदि। प्रभावकचरित में जिनेश्वररसूरि ने चौलुक्यनरेश दुर्लभराज की राजसभा में शास्त्रार्थ चन्द्रकुल की एक शाखा के रूप में इस गच्छ का उल्लेख मिलता में चैत्यवासियों को परास्त किया, जिससे प्रसन्न होकर राजा है। इस गच्छ में पट्टधर आचार्यों को भावदेवसरि, विजयसिंहसरि, द्वारा उन्हें खरतर का विरुद्ध प्राप्त हुआ। इस घटना से गर्जरभूमि वीरसूरि और जिनदेवसूरि ये चार नाम पुनः प्राप्त होते रहे। में सुविहितमार्गीय श्रमणों का विहार प्रारंभ हो गया। जिनेश्वरसूरि पार्श्वनाथचरित (रचनाकाल वि.सं. १४१२/ई. सन् १३५६) के . की शिष्य-संतति खरतरगच्छीय कहलाई। इस गच्छ में अनेक रचनाकार भावदेवसूरि इसी गच्छ के थे। इसकी प्रशस्ति के प्रभावशाली और प्रभावक आचार्य हुए और आज भी हैं। इस अंतर्गत उन्होंने अपनी गुरु-परंपरा दी है, जो इस प्रकार है-- गच्छ के आचार्यों ने साहित्य की प्रत्येक विधा को अपनी लेखनी भावदेवसूरि द्वारा समृद्ध किया, साथ ही जिनालयों के निर्माण, प्राचीन जिनालयों के पुनर्निर्माण एवं जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में भी सक्रिय रूप विजयसिंहसूरि से भाग लिया।२१ वीरसूरि युगप्रधानाचार्यगुर्वावली२२ में इस गच्छ के ११वीं शती से १४वीं शती के अंत तक के आचार्यों का जीवनचरित्र दिया जिनदेवसूरि गया है जो न केवल इस गच्छ के अपितु भारतवर्ष के तत्कालीन राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके भावदेवसूरि अतिरिक्त इस गच्छ से संबद्ध अनेक विज्ञप्तिपत्र, पट्टावलियाँ, विजयदेवसूरि गुर्वावलियाँ, ऐतिहासिक रास, ऐतिहासिक गीत आदि मिलते हैं, जो इसके इतिहास के अध्ययन के लिए अत्यंत उपयोगी हैं। वीरसूरि अन्यान्य गच्छों की भाँति इस गच्छ की भी कई शाखाएँ अस्तित्व में आईं, जो इस प्रकार हैं-- जिनदेवसूरि १. मधुकरा शाखा-- आचार्य जिनवल्लभसूरि के समय वि.सं. ११६७/ई. सन् ११११ में यह शाखा अस्तित्व में आई। यशोभद्रसूरि भावदेवसूरि (वि.सं. १४१२/ई. सन् १३५६ में २. रुद्रपल्लीयशाखा-- वि.सं. १२०४ में आचार्य पार्श्वनाथचरित के रचनाकार) जिनेश्वरसूरि से यह शाखा अस्तित्व में आई। इस शाखा में अनेक विद्वान आचार्य हए। श्री अगरचंद नाहटा के अनसार कालकाचार्यकथा, यतिदिनचर्या, अलंकारसार, भक्तामरटीका आदि के कर्ता भावदेवसूरि को ब्राउन ने। वि.संकी १७वीं शती तक इस शाखा का अस्तित्व रहा। पार्श्वनाथचरित के कर्ता उपरोक्त भावदेवसरि से अभिन्न माना है। ३. लघुखरतर शाखा--वि.सं. १३३१/ई. सन् १२७५ इस गच्छ से संबद्ध अनेक प्रतिमालेख मिले हैं जो वि.सं. में आचार्य जिनसिहसूरि से इस शाखा का उदय हुआ। अन्यान्य maatamantimaintamanamanthanindianai ?? } Gambodia andamaina taramananandamaina - - - - - - - - । -------- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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