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________________ प्राचीन मालवा के जैन विद्धान और उनकी रचनाएँ डॉ. तेजसिंह गौड़ उज्जैन (म.प्र.).../ 23 लवा भारतीय इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। समाप्त कर जब इनका दशपुर आगमन हुआ तो स्वागत के ना साहित्य के सम्बन्ध में भी यह पिछड़ा हुआ नहीं रहा है। समय माता रुद्रसोमा ने कहा - "आर्यरक्षित तेरे विद्याध्ययन से कालिदास जैसे कवि इस भूखण्ड की ही देन है। प्राचीन मालवा मुझे तब संतोष एवं प्रसन्नता होती जब तू जैन दर्शन और उसके में जैन-विद्वानों की भी कमी नहीं रही है। प्रस्तुत निबंध में साथ ही विशेषतः दृष्टिवाद का समग्र अध्ययन कर लेता।"माता , मालवा के सम्बन्धित जैन विद्वानों के संक्षिप्त परिचय के साथ की मनोभावना एवं उसके आदेशानुसार आर्यरक्षित इक्षुवाटिका उनकी कृतियों का भी परिचय देने का प्रयास किया जा रहा है। गये जहाँ आचार्य श्री तोसलीपुत्र विराजमान थे। उनसे दीक्षा इन विद्वानों के सम्बन्ध में सामग्री यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है। साथ ग्रहण कर जैन-दर्शन एवं दृष्टिवाद का अध्ययन किया। फिर ही आज भी जैनधर्म से सम्बन्धित कई ग्रन्थ ऐसे हो सकते हैं और उज्जैन में अपने गुरु की आज्ञा से आचार्य भद्रगुप्तसूरि एवं । होंगे भी जो प्रकाश में नहीं आए हैं। फिर भी उपलब्ध जानकारी के दतनेतर आर्य वज्रस्वामी के समीप पहुंचकर उनके अन्तेवासी अनुसार कुछ जैन-विद्वान और उनकी रचनायें निम्नानुसार है :- बनकर विद्याध्ययन किया। १. आचार्य भद्रबाह :- आचार्य भद्रबाहु का परिचय देने की आर्य वज्रस्वामी की मृत्यु के उपरांत आर्यरक्षितसूरि तेरह आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। कारण कि इन्हें प्रायः अधिकांश वर्ष तक युगप्रधान रहे। आपने आगमों को चार भागों में व्यक्ति जानते हैं। ये भगवान महावीर के पश्चात् छठे थेर माने निम्नानुसार विभक्त किया :जाते हैं। इनके ग्रंथ 'दसाउ' और 'दस निज्जति' के अतिरिक्त १. करणचरणानुयोग, २. गणितानुयोग, ३. धर्मकथानुयोग 'कल्पसूत्र' का जैन धार्मिक-साहित्य में विशेष महत्व है। और ४. द्रव्यानुयोग । इसके साथ ही आर्यरक्षितसूरि ने अनुयोगद्वार २. क्षपणक :- ये सम्राट निक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक सूत्र की भी रचना की जो जैन-दर्शन का प्रतिपादक महत्वपर्ण थे। इनके रचे हुए न्यायावतार, दर्शनशुद्धि, सम्मतितर्कसत्र और आगम मान जाता है। यह आगम आचार्य प्रवर की दिव्यतम प्रमेयरत्न कोवा नामक चार ग्रंथ प्रसिद्ध है। इनमें न्यायावतार ग्रंथ दर्शनिक दृष्टि का परिचायक है। अपूर्व है। यह अत्यंत लघु ग्रंथ है, किंतु इसे देख कर सागर में मागर आर्यरक्षित सूरि का स्वर्गवास दशपुर में वीर संवत् ५८३ भरने की कहावत याद आ जाती है। ३२ श्लोकों के इस काव्य में में हआ। क्षपणक ने सारा जैन न्याय शास्त्र भर दिया है। न्यायावतार पर। . (४) सिद्धसेन दिवाकर : पं. सुखलाल जी ने श्री सिद्धसेन चन्द्रप्रभसरि ने न्यायावतारनिवृत्ति नामक विशेष टीका लिखी है। दिवाकर के विषय में इस प्रकार लिखा है - जहाँ तक मैं जान (३) आर्य रक्षितसूरि : आपका जन्म मन्दसौर में हुआ था। पाया हूँ जैनपरम्परा में तर्क का और तर्कप्रधान संस्कृतवाडूमय पिता का नाम सोमदेव तथा माता का नाम रुद्रसोमा था। लघुभ्राता का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर।" उज्जैन और विक्रम के का नाम फल्गुरक्षित था जो स्वयं भी आर्यरक्षितसूरि के कहने से साथ इनका पर्याप्त सम्बन्ध रहा है। रचनायें (१) 'सम्मति प्रकरण जैन साधु हो गया था। प्राकृत में है और जैनदृष्टि और मंतव्यों को तर्क शैली में स्पष्ट इनके पिता सोमदेव स्वयं एक अच्छे विद्वान थे। आर्यरक्षित न करने तथा स्थापित करने में जैन-वाङ्मय में सर्वप्रथम ग्रन्थ है, की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर पिता के संरक्षण में हुई। फिर आगे जिसका आश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर-दिगम्बर-विद्वानों ने लिया है। सिद्धसेन दिवाकर ही जैन-परम्परा का आद्य संस्कृत अध्ययनार्थ ये पाटलीपुत्र चले गये। पाटलीपत्र से अध्ययन स्तुतिकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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