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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासप्राचीन हैं। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम-साहित्य को इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वर सूरि जिनचन्द्र अन्तिम रूप लगभग ई. सन् की छठी शती के पूर्वार्द्ध में मिला सूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की । ईसवी सन् यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। की दशवीं शताब्दी में खरतरगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के के विरोध में हुआ था, जिसका प्रारम्भिक नाम सुविहितमार्ग या मध्य तक मुख्य आगमिक व्याख्यासाहित्य के रूप में नियुक्ति, संविग्नपक्ष था। दिगम्बर-परम्परा में इस युग में द्रविड संघ, भाष्य, चूर्णि और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त जिन्हे दर्शन-सार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया। स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गए। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में इस संबंध में पं. नाथूरामजी प्रेमी ने अपने ग्रन्थ 'जैन सिद्धसेन, जिनभद्रगणा, शिवाय, बट्टकर, कुन्दकुन्द, अकलक, साहित्य और इतिहास' में 'चैत्यवास और वनवास' के शीर्षक समन्तभद्र, विद्यानंद, जिनसेन, स्वयम्भू, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक, के अन्तर्गत विस्तृत चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के अना अभयदेव आदि प्रमुख हैं। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध आधार पर यह कहना कठिन ही है कि इन विरोधों के बावजूद टीकाओं और पुराणों का रचनाकाल भी यही युग है। भी जैन-संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका है। चैत्यवास और भट्टारक-परंपरा का उदय : तन्य और भक्तिमार्ग का जैन धर्म पर प्रभाव : दिगम्बर-परम्परा में भट्टारक संप्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा वस्तुतः गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में चैत्यवास का विकास भी इसी युग अर्थात् ईसा की पाँचवीं तक का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के हास और शती से होता है, यद्यपि जिन-मंदिर और जिन-प्रतिमा के निर्माण ललित कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से तो स्पष्ट रूप से मिलने खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों में कामुक अंकन किए गए। लगते हैं। शक और कुषाण-युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, कास हुआ, जिन-मंदिर भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यही वह युग फिर भी ईसा की ५ वीं शती से १२ वीं शती के बीच जैनशिल्प _है जब कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की कथा को गढ़कर अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है। यह वस्तुतः चैत्यवास की धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी काल में देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि वनवास को छोड़कर तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हआ। जिसकी अग्नि में बौद्ध और वा चैत्यों जिनमंदिरों में रहने लगे थे। केवल इतना ही नहीं, वे इन भिक्षसंघ तो परी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षुसंघ भी उसकी चैत्यों की व्यवस्था भी करने लगे थे। अभिलेख से तो यहाँ तक लपटों की झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैनधर्म पर सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, भी तन्त्र का प्रभाव आया। हिन्दू-परम्परा के अनेक देवी-देवताओं अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिए भी सम्भ्रान्त को प्रकारांतर से यक्ष, यक्षिणी अथवा शासन-देवियों के रूप में वर्ग से दान प्राप्त किए जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन जैन देव-मण्डल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया। उनकी साधु मठाधीश बन गया था। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिए अनेक द्वारा जैन-दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में । तान्त्रिक विधि-विधान बने। जैन तीर्थंकर तो वीतराग था, अतः हुआ, उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। __ वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, यद्यपि चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार __फलतः दोनों ने यक्ष-यणियों या शासन-देवता को भक्तों के विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों कल्याण की जवाबदारी देकर अपने को युग-विद्या के साथ परम्पराओं में हुआ। श्वेताम्बर-परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र समायोजित कर लिया। इसी प्रकार भक्ति-मार्ग का प्रभाव भी ने इसके विरोध में लेखनी चलाई। सम्बोधन प्रकरण में उन्होंने इस युग में जैनसंघ पर पड़ा। तन्त्र और भक्तिमार्ग के संयक्त इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर आलोचना प्रभाव से जिनमंदिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार की, यहाँ तक कि उन्हें नरपिशाच तक कह दिया। चैत्यवास की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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