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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास. हेतु उत्तरी भारत का निर्ग्रन्थ-संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था। मथुरा में ईसवीं सन् प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें सभी में श्रमणों को एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वे सामान्यतया नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जन समाज में जाते समय वे वस्त्रखंड हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अतिशीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ लेते थे। यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए थे। आचारांग से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही- पात्र का उपयोग कर लेते थे, किन्तु बाद में उन्होंने इसका त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गए अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से संभवतः सर्व प्रथम निर्ग्रन्थ- संघ में शौच के लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा, किन्तु भिक्षुकों की बढ़ती हुई संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी। मथुरा में ईसा की प्रथम-द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है, जो अपने हाथ में एक पात्र - युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वेताम्बर - परम्परा में, विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी - परम्परा में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख- वस्त्रिका (मुँह - पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के भी अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर- परम्परा में प्रचलित मयूरपिच्छि और श्वेताम्बरपरम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि साहित्यिक और पुरातात्त्विक स्पष्ट साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूरपिच्छ के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु के । दिगम्बर- परम्परा में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) का और उसके गुणों का तो वर्णन है, किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ-संघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका Jain Education International और प्रतिलेखन (रजोहरण) का प्रचलन था। सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे, और साध्वियाँ साड़ी पहनती थीं। मुनि वस्त्र का उपयोग उचित अवसर पर शीत एवं लज्जानिवारण हेतु करते थे। मुनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किए रहने की परम्परा नहीं थी । इसी प्रकार इन अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप मुख पर बँधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थ भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे संभवतः ईसा की दूसरीतीसरी शती तक निश्चित हो गए थे। महावीर के पश्चात निर्ग्रन्थसंघ में हुए संघ-भेद : महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग पाँच सौ वर्षों के इतिहास में हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं, वे निह्नवों के दार्शनिक एवं वैचारिक मतभेदों एवं संघ के विभिन्न, गणों, शाखाओं, कुलों एवं संभागों के विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। आवश्यकनियुक्ति सात निह्नवों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति, अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ट महिल महावीर निर्वाण के पश्चात् २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए। ये निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पर निर्ग्रन्थ- संघ की परम्परागत मान्यताओं से मतभेद रखते थे। किन्तु इनके द्वारा निर्ग्रन्थ-संघ में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई हो, ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती है। इस काल में निर्ग्रन्थ- संघ में गण और शाखा -भेद भी हुए किन्तु वे किन दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्य-प्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर ही ये गण या शाखा भेद हुए होंगे। यद्यपि कल्पसूत्र स्थविरावलि में षडुलक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। रोहगुप्त त्रैराशिक मत के प्रवक्ता एक ह्निव माने गए हैं। अतः यह स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता - भेद भी रहे होंगे, किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है। कल्पसूत्र की स्थविरावलि तुंगीयायन गोत्री आर्य यशोभद्र के दो शिष्यों माढरगोत्री सम्भूतिविजय ओ र प्राचीनगोत्री भद्रबाहु মটমউf 4 মমট For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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