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________________ . यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहास प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। ऋषभ, नमि, अजित, अर, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्णतः मौन हैं और इनके प्रति हमारी आस्था का आधार परवर्ती काल के आगम और अन्य कथा - ग्रन्थ ही है । महावीर और आजीवक - परंपरा : जैन धर्म के इस पूर्व इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा के पश्चात् जब हम पुनः महावीर के काल की ओर आते हैं तो कल्पसूत्र एवं भगवती में कुछ ऐसे सूचना -सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर ज्ञातृपुत्र श्रमण महावीर के पार्श्वापत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ भी निकट सम्बन्धों की सूचना मिलती है। Jain Education International गया है। इस प्रकार आजीवकों के निर्ग्रन्थ-संघ से जुड़ने एवं अलग होने की यह घटना निर्ग्रन्थ परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साथ ही निर्ग्रन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव दोनों संघों की आंशिक निकटता का भी सूचक है। निर्ग्रन्थ - परम्परा में महावीर के जीवनकाल में हुए संघभेद : महावीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ-संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण घटना महावीर के जामातृ कहे जाने वाले जमालि से उनका वैचारिक मतभेद होना और जमालि का अपने पाँच सौ शिष्यों सहित उनके संघ से अलग होना है। भगवती, आवश्यक-निर्युक्ति और परवर्ती ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है है। निर्ग्रन्थ- संघ-भेद की इस घटना के अतिरिक्त हमें बौद्ध कि महावीर के दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखलीपुत्र गोशालक पिटक - साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख भी मिलता है उनके निकट संपर्क में आया था, कुछ वर्ष दोनों साथ भी रहे, जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं एवं किन्तु नियतिवाद और पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया । निर्ग्रन्थदोनों अलग-अलग हो गए। हरमन जेकोबी ने तो यह कल्पना संघ के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुँचती है। किन्तु भी की है कि महावीर की निर्ग्रन्थ-परम्परा में नग्नता आदि जो पिटक - साहित्य में इस विवाद के कारण क्या थे, इसकी कोई आचारमार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की आजीवकपरंपरा चर्चा नहीं है। एक सम्भावना यह हो सकती है कि यह विवाद का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी आजीवकों महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर हुआ होगा । श्वेताम्बर की एक परम्परा थी, जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी और. दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी को ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर लेकर मतभेद है। दिगम्बर-परम्परा महावीर के पश्चात् गौतम को साधना की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में गई या पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर - परम्परा सुधर्मा को । श्वेताम्बरआजीवकगोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा आई। क्योंकि परम्परा में जो महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के दूसरे ग्राम में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने पश्चात् गोशालक आजीवक परम्परा से जुड़ा था । या वह प्रारंभ की जो घटना वर्णित है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो में ही आजीवक परम्परा में दीक्षित होकर महावीर के पास आया सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि था फिर भी इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी बौद्धों ने जैनों के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी परवर्ती विवाद के बाद तक भी इस आजीवक परम्परा का अस्तित्व रहा है। को पिटकों के संपादन के समय महावीर के निर्वाण की घटना यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण - परंपरा थी, के साथ जोड़ दिया हो । मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित जिसके श्रमण जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न रहते थे। हुआ होगा तो वह महावीर के नग्न व वस्त्र रखने वाले श्रमणों के जैन और आजीवक दोनों परम्पराएँ प्रतिस्पर्धी होकर भी एक बीच हुआ होगा। क्योंकि पार्श्वापत्यों के महावीर के निर्ग्रन्थ संघ दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थीं, में प्रवेश के साथ ही उनके संघ में नग्न और सवस्त्र ऐसे दो वर्ग इस तथ्य की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों अवश्य ही बन गए होंगे और महावीर ने श्रमणों के इन दो वर्गों के षट्विध वर्गीकरण से होती है। निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के को सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्रधारी के रूप श्रमणों से ऊपर और आजीवक - परम्परा से नीचे स्थान दिया में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे মমউমিট{ z Fমমট For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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