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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार मोक्ष या निर्वाण है। यहाँ यह स्मरण रखने योग्य है कि जब तक ध्यान ध्यान के व्यावहारिक लाभ में विकल्प है, आकांक्षा है, चाहे वह प्रशस्त ही क्यों न हों, तब तक वह आचार्य भद्रबाहु ने कायोत्सर्ग, जो ध्यान-साधना की अग्रिम शुभास्रव का कारण तो होगा ही। फिर भी यह शुभास्रव मिथ्यात्व के स्थिति है, के लाभों की चर्चा करते हुए आवश्यकनियुक्ति में लिखा है अभाव के कारण संसार की अभिवृद्वि का कारण नही बनता है।१६ कि कायोत्सर्ग के निम्न पाँच लाभ हैं-२२ १. देह जाड्य शुद्धि- श्लेष्म पुनः ध्यान के लाभों की चर्चा करते हुए उसमें कहा गया है एवं चर्बी के कम हो जाने से देह की जड़ता समाप्त हो जाती है। कि जिस प्रकार जल वस्त्र के मल को धोकर उसे निर्मल बना देता है, कायोत्सर्ग से श्लेष्म, चर्बी आदि नष्ट होते हैं, अत: उनसे उत्पन्न होने उसी प्रकार ध्यानरूपी जल आत्मा के कर्मरूपी मल को धोकर उसे वाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है। २. मति जाड्य शुद्धि- कायोत्सर्ग में निर्मल बना देता है। जिस प्रकार अग्नि लोहे के मैल को दूर कर देती मन की वृत्ति केन्द्रित हो जाती है, उससे बौद्धिक जड़ता क्षीण होती है। है,१७ जिस प्रकार वायु से प्रेरित अग्नि दीर्घकाल से संचित काष्ठ को ३. सुख-दुःख-तितिक्षा (समताभाव) ४. कायोत्सर्ग स्थित व्यक्ति जला देती है, उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से प्रेरित साधनारूपी अग्नि अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का स्थिरतापूर्वक अभ्यास कर सकता है। ५. पूर्वभवों के संचित कर्म-संस्कारों को नष्ट कर देती है। उसी प्रकार ध्यान-कायोत्सर्ग में शुभ ध्यान का अभ्यास सहज हो जाता है। इन लाभों ध्यानरूपी अग्नि आत्मा पर लगे हुए कर्मरूपी मल को दूर कर देती में न केवल आध्यात्मिक लाभों की चर्चा है अपितु मानसिक और है।१८ जिस प्रकार वायु से ताडित मेघ शीघ्र ही विलीन हो जाते हैं शारीरिक लाभों की भी चर्चा है। वस्तुत: ध्यान-साधना की वह कला है उसी प्रकार ध्यानरूपी वायु से ताडित कर्मरूपी मेघ शीघ्र विलीन हो जो न केवल चित्त की निरर्थक भाग-दौड़ को नियंत्रित करती है, अपितु जाते हैं।१९ संक्षेप में ध्यान-साधना से आत्मा, कर्मरूपी मल एवं वाचिक और कायिक (दैहिक) गतिविधियों को भी नियंत्रित कर व्यक्ति आवरण से मुक्त होकर अपनी शुद्ध निर्विकार ज्ञाता-द्रष्टा अवस्था को को अपने आप से जोड़ देती है। हमें एहसास होता है कि हमारा अस्तित्व प्राप्त हो जाता है। चैतसिक और दैहिक गतिविधियों से भी ऊपर है और हम उनके केवल साक्षी हैं, अपितु नियामक भी हैं। ध्यान और तनावमुक्ति ध्यान-आत्मसाक्षात्कार की कला ध्यान के इस चार अलौकिक या आध्यात्मिक लाभों के मनुष्य के लिये, जो कुछ भी श्रेष्ठतम और कल्याणकारी है, अतिरिक्त ग्रन्थकार ने उसके ऐहिक, मनोवैज्ञानिक लाभों की भी चर्चा वह स्वयं अपने को जानना और अपने में जीना है। आत्मबोध से की है, वह कहता है कि जिसका चित्त ध्यान में संलग्न है, वह महत्त्वपूर्ण एवं श्रेष्ठतम अन्य कोई बोध है ही नहीं। आत्मसाक्षात्कार या क्रोधादि कषायों से उत्पन्न होने वाले ईर्ष्या, विषाद, आदि मानसिक आत्मज्ञान भी साधना का सारतत्त्व है। साधना का अर्थ है अपने आप के दुःखों से पीड़ित नहीं होता है।२० ग्रन्थकार के इस कथन का रहस्य प्रति जागना। वह 'कोऽहं' से 'सोऽहं' तक की यात्रा है। साधना की इस यह है कि जब ध्यान में आत्मा अप्रमत्तचेता होकर ज्ञाता-द्रष्टा भाव यात्रा में अपने आप के प्रति जागना सम्भव होता है। ध्यान में ज्ञाता में स्थिति होता है, तो उस अप्रमत्तता की स्थिति में न तो कषाय ही अपनी ही वृत्तियों, भावनाओं, आवेगों और वासनाओं को ज्ञेय बनाकर क्रियाशील होते हैं और न उनसे उत्पन्न ईर्ष्या, द्वेष, विषाद आदि भाव वस्तुतः अपना ही दर्शन करता है। यद्यपि यह दर्शन तभी संभव होता है, ही उत्पन्न होते हैं। ध्यानी व्यक्ति पूर्व संस्कारों के कारण उत्पन्न होने जब हम इनका अतिक्रमण कर जाते हैं, अर्थात्, इनके प्रति कर्ताभाव से वाले कषायों के विपाक को मात्र देखता है, किन्तु उन भावों में मुक्त होकर साक्षी भाव जगाते हैं। अत: ध्यान आत्मा के दर्शन की कला परिणित नहीं होता है। अत: काषायिक भावों की परिणति नहीं होने है। ध्यान ही वह विधि है, जिसके द्वारा हम सीधे अपने ही सम्मुख होते से उसके चित्त के मानसिक तनाव समाप्त हो जाते हैं। ध्यान मानसिक हैं, इसे ही आत्मसाक्षात्कार कहते हैं। ध्यान जीव में 'जिन' का, आत्मा तनावों से मुक्ति का अन्यतम साधन है। ध्यानशतक (झाणाज्झयण) से परमात्मा का दर्शन कराता है। के अनुसार ध्यान से न केवल आत्मविशुद्धि और मानसिक तनावों ध्यान की इस प्रक्रिया में आत्मा के द्वारा परमात्मा (शुद्धात्मा) से मुक्ति मिलती है, अपितु शारीरिक पीड़ायें भी कम हो जाती हैं। के दर्शन के पूर्व सर्वप्रथम तो हमें अपने 'वासनात्मक स्व' (id) का उसमें लिखा है कि जो चित्त ध्यान में अतिशय स्थिरता प्राप्त कर साक्षात्कार होता है- दूसरे शब्दों में हम अपने ही विकारों और वासनाओं चुका है, वह शीत, उष्ण आदि शारीरिक दुःखों से भी विचलित नहीं के प्रति जगाते हैं। जागरण के इस प्रथम चरण में हमें उनकी विद्रूपता का होता है। उन्हें निराकुलतापूर्वक सहन कर लेता है।२१ यह हमारा बोध होता है। हमें लगता है कि ये हमारे विकार भाव हैं-विभाव हैं, व्यावहारिक अनुभव है कि जब हमारी चित्तवृत्ति किसी विशेष दिशा क्योंकि हममें ये 'पर' के निमित्त से होते हैं। यही विभाव दशा का बोध में केन्द्रित होती है तो हम शारीरिक पीड़ाओं को भूल जाते हैं; जैसे साधना का दूसरा चरण है। साधना के तीसरे चरण में साधक विभाग से एक व्यापारी व्यापार में भूख-प्यास आदि को भूल जाता है। अतः रहित शुद्ध आत्मदशा की अनुभूति करता है- यही परमात्मदर्शन है, ध्यान में दैहिक पीड़ाओं का एहसास भी अल्पतम हो जाता है। स्वभावदशा में रमण है। यहाँ यह विचारणीय है कि ध्यान इस आत्मदर्शन में कैसे सहायक होता है? 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SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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