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________________ मानाप कर, ता -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचारप्राप्त होता है। स्वाध्याय का साधक-जीवन में स्थान भन्ते! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है? स्वाध्याय का जैन-परम्परा में कितना महत्त्व रहा है, इस सम्बन्ध अनुप्रेक्षा अर्थात् सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन से जीव आयुष्यकर्म में मैं अपनी ओर से कुछ न कहकर उत्तराध्ययनसूत्र के माध्यम से को छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन ही अपनी बात को स्पष्ट करूंगा। उसमें मुनि की जीवन-चर्या की चर्चा को शिथिल करता है। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता करते हुए कहा गया हैहै। उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है। बहुकर्म-प्रदेशों को अल्प- दिवसस्स चउरो भागे कुज्जा भिक्खू वियक्खणो। प्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष्यकर्म का बन्ध कदाचित् करता तओ उत्तरगुणे कुज्जा दिणभागेसु चउसु वि ।। है, कदाचित् नहीं भी करता है। असातावेदनीयकर्म का पुन:-पुन: उपचय पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई। नहीं करता है। जो संसार अटवी अनादि एवं अनन्त है, दीर्घमार्ग तइयाए भिक्खाचरियं पुणो चउत्थीए सज्झायं ।। से युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त (अवयव) हैं, उसे रत्तिं पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा वियक्खणो। शीघ्र ही पार करता है। तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभाएसु चउसु वि ।।भन्ते! धर्मकथा (धर्मोपदेश) से जीव को क्या प्राप्त होता है? पढम पोरिसि सज्झायं बीयं झियायई। धर्मकथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन तइयाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुन्जो वि सज्झायं ।। (शासन एवं सिद्धान्त) की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना -उत्तराध्ययनसूत्र, २६/११,१२,१७,१८ करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले पुण्य कर्मों का बन्ध मुनि दिन के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करे, दूसरे प्रहर में ध्यान करता है। करे, तीसरे में भिक्षा-चर्या एवं दैहिक आवश्यकता की निवृत्ति का इसी प्रकार स्थानांगसूत्र में भी शास्त्राध्ययन से क्या लाभ हैं? कार्य करे। पुनः चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय करे। इसी प्रकार रात्रि के इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें कहा गया है कि सूत्र की वाचना प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में निद्रा व चौथे में से पाँच लाभ हैं-१. वाचना से श्रुत का संग्रह होता है अर्थात् यदि पुन: स्वाध्याय का निर्देश है। इस प्रकार मुनि प्रतिदिन चार प्रहर अर्थात् अध्ययन का क्रम बना रहे तो ज्ञान की वह परम्परा अविच्छिन्न रूप १२ घंटे स्वाध्याय में रत रहे। दूसरे शब्दों में साधक-जीवन का से चलती रहती है। २. शास्त्राध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति से शिष्य आधा भाग स्वाध्याय के लिये नियत था। इससे यह स्पष्ट हो जाता का हित होता है, क्योंकि वह उसके ज्ञान की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण है कि जैन-परम्परा में स्वाध्याय का महत्त्व प्राचीन काल से ही सुस्थापित साधन है। ३. शास्त्राध्ययन अर्थात् अध्यापन की प्रवृत्ति बनी रहने से रहा है, क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम था जिसके द्वारा व्यक्ति के अज्ञान ज्ञानावरण कर्म की निर्जरा होती है अर्थात् अज्ञान का नाश होता है। का निवारण तथा आध्यात्मिक विशुद्धि सम्भव थी। ४. अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति के जीवित रहने से उसके विस्मृत होने की सम्भावना नहीं रहती है। ५. जब श्रुत स्थिर रहता है तो उसकी सत्साहित्य के अध्ययन की दिशायें । अविच्छिन्न परम्परा चलती रहती है। सत्साहित्य के पठन के रूप में स्वाध्याय की क्या उपयोगिता है? यह सुस्पष्ट है। वस्तुत: सत्साहित्य का अध्ययन व्यक्ति की जीवनस्वाध्याय का प्रयोजन दृष्टि को ही बदल देता है। ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी सत्साहित्य स्थानांगसूत्र में स्वाध्याय क्यों करना चाहिए इसकी चर्चा उपलब्ध के अध्ययन से जीवन की दिशा ही बदल गयी। स्वाध्याय एक ऐसा होती है। इसमें यह बताया गया है कि स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजन माध्यम है, जो एकान्त के क्षणों में हमें अकेलापन महसूस नहीं होने होने चाहिए देता और एक सच्चे मित्र की भाँति सदैव साथ देता है तथा मार्ग-दर्शन १. ज्ञान की प्राप्ति के लिये २. सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये करता है। ३. सदाचरण में प्रवृत्ति हेतु ४. दुराग्रहों और अज्ञान का विमोचन करने वर्तमान युग में यद्यपि लोगों में पढ़ने-पढ़ाने की रुचि विकसित के लिये ५. यथार्थ का बोध करने के लिए या अवस्थित भावों का हुई है, किन्तु हमारे पठन की विषय-वस्तु सम्यक् नहीं है। आज के ज्ञान प्राप्त करने के लिए। व्यक्ति के पठन-पाठन का मुख्य विषय पत्र-पत्रिकाएँ हैं। इनमें मुख्य आचार्य अकलंक ने स्वाध्याय के निम पाँच प्रयोजनों की भी रूप से वे ही पत्रिकाएँ अधिक पसन्द की जा रही हैं जो चर्चा की है वासनाओं को उभारने वाली तथा जीवन के विपित पक्ष को यथार्थ १. बुद्धि की निर्मलता, २. प्रशस्त मनोभावों की प्राप्ति, के नाम पर प्रकट करने वाली हैं। आज समाज में नैतिक मूल्यों का ३. जिनशासन की रक्षा, ४. संशय की निवृत्ति, ५. परवादियों की जो पतन है उसका कारण हमारे प्रसार माध्यम भी हैं। इन माध्यमों शंका का निरसन, ६. तप-त्याग की वृद्धि और अतिचारों (दोषों) में पत्र-पत्रिकाएँ तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन प्रमुख हैं। आज स्थिति की शुद्धि। ऐसी है कि ये सभी अपहरण, बलात्कार, गबन, डकैती, चोरी, हत्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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