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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ - जैन साधना एवं आचार - इन नौ प्रकारों से प्राणी का घात न करना ही अहिंसा है। (१) श्रोत्रेन्द्रिय के विषय शब्द के प्रति रागद्वेष-राहित्य। अहिंसा के पालन से मनुष्य में निर्भयता, वीरता, क्षमा, दया । (२) चक्षुरिन्द्रिय के विषय रूप से अनासक्त भाव रखना। आदि आत्मिक शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। अहिंसा व्रत की (३) ध्राणेन्द्रिय के विषय गंध के प्रति अनासक्त भाव रखना। पाँच भावनाएँ हैं - (४) रसनेन्द्रिय के विषय रस के प्रति अनासक्त भाव रखना। (१) ई र्या समिति (२) भाषा समिति (३) एषणा समिति (४) आदान समिति (५) मनः समिति। (५) स्पर्शेन्द्रिय के विषय स्पर्श के प्रति अनासक्त भाव रखना। २. सत्य - असत्य का परित्याग करना तथा यथाश्रुत गुप्ति एवं समिति - जैन-परम्परा में तीन गप्तियों तथा वस्तु के स्वरूप का कथन सत्य कहलाता है। इसका भी तीन पाँच समितियों का विधान है। गुप्तियाँ, मन, वचन और काय योग और तीन करण से श्रमण को पालन करना होता है। इस की अशुभ प्रवृत्तियों को रोकती हैं और समितयाँ चारित्र की महाव्रत की भी पाँच भावनाएँ हैं५५ प्रवृत्ति के लिए हैं।५९ कहा भी गया है कि योग का अच्छी प्रकार (१) विवेक-विचारपूर्वक बोलना। से निग्रह करना ही गुप्ति है। गुप्तियाँ श्रमण-साधना का निषेधात्मक रूप प्रस्तुत करती हैं, जबकि समितियाँ साधना की विधेयात्मक (२) क्रोध से बचना। रूप से व्यक्त करती हैं। ये आठ गुण श्रमण - जीवन का (३) लोभ से सर्वथा दूर रहना। संरक्षण उसी प्रकार करते हैं, जिस प्रकार माता अपने पुत्र की (४) भय से अलग रहना। करती है। इसलिए इन्हें अष्टप्रवचन-माता भी कहा जाता है।६० (५) हास-परिहास से अलग रहना। गुप्ति - गुप्तियाँ तीन हैं - मनोगुप्ति, वचन गुप्ति और ३. अस्तेय - बिना दिए हुए परवस्तु का ग्रहण स्तेय काय गुप्ति। कहलाता है। अतः मन, वचन और काम से चोरी न करना, मनोगप्ति - राग-देषादि कषायों से मन को निवन करना : करवाना और न करने वालों का अनुमोदन करना ही अस्तेय है। मनोगुप्ति है। इस व्रत की भी पाँच भावनाएँ ६ २. वचनगुप्ति - अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग न (१) अनुवीचि ग्रहयाचन (२) अभीक्ष्य अवग्रहयाचन करना वचन गुप्ति है। उत्तराध्ययनसूत्र में अशुभ प्रवृत्तियों में (३) अवग्रहधारण (४) साधार्मिक अवग्रहयाचन (५) अनुज्ञापित जाते हुए वचन का निरोध करने को वचनगुप्ति कहा जाता है।११ पान भोजन। ३. कायगुप्ति - शारीरिक क्रियाओं द्वारा होने वाली हिंसा से ४. ब्रह्मचर्य - मन, वचन और काय से किसी भी काल बचना कायगुप्ति है। में मैथन न करना ब्रह्मचर्य व्रत है। इस की भी पाँच भावनाएँ हैं ५७ समिति - समितियाँ पाँच हैं - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान (१) स्त्री-कथा-त्याग (२) मनोहर क्रियावलोकन-त्याग और मनःसमिति। (३) पूर्वरति-विलास-स्मरण-त्याग (४) प्रणीतरस-भोजन-त्याग १.ईर्या समिति - आने-जाने, उठने-बैठने आदि प्रवृत्ति के लिए (५) शयनासन-त्याग। चर्चा करते समय छोटे या बड़े जीव के प्रति क्लेशकारक प्रवृत्ति ५. अपरिग्रह - संसार के समस्त विषयों के प्रति राग का बचाव करना। तथा ममता का परित्याग कर देना ही अपरिग्रह है। मूलाचार में २. भाषा समिति - बोलते अपरिग्रह व्रत के पालन का निर्देश देते हुए कहा गया है कि ग्राम, समय क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय आदि से मुक्त हितमित सत्य और मधुर वचन नगर, अरण्य, स्थूल, सचित्त तथा स्थूलादि से उल्टे सूक्ष्म अचित्य बोलना। स्तोक जैसे अंतरंग-बहिरंग परिग्रह को मन, वचन और काय द्वारा छोड़ दें।५८ इनकी भी पाँच भावनाएँ हैं - anwirorariwaridroraridrionidrodrowdrionirirdrob-[४४dmiridinodniudridwidarbromidnidroidrbadridwar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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