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________________ ब्रह्मचर्य परम पूज्य आगमज्ञाता साहित्याचार्य मुनिराज श्री देवेन्द्र विजयी महाराज के शिष्य मुनिराज नरेन्द्र विजयजी 'नवल' विश्व में दो प्रकार की विचारधाराएँ प्रचलित हैं- भौतिक अर्थात् असंयम से निवृत्ति करें और संयम में प्रवृत्ति करें। आवआध्यात्मिक। मार्ग भी दो हैं - प्रेयस और श्रेयस । पुदगल, संसार में सभी धर्मों का सार संयम है, सत्य है और सभी उत्तम शरीर, इन्द्रिय-विषयभोग पोषण का मार्ग प्रेयस् है, जबकि धर्मों का समावेश इसमें हो जाता है। देवता भी उसे नमस्कार धा का समावश इसम हा ज आत्मकल्याण के लिए त्याग-वैराग्य का मार्ग श्रेयस् हैं। एक __ करते हैं, जो संयम धर्म का पालन करता है। स्वयं भगवान् ने भोगप्रधान है तो दूसरा त्याग-प्रधान है। एक आत्मा का पतन कहा है कि अहिंसा, तप और संयम रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है करने वाला है तो दूसरा उत्थान। इन दोनों को भलीभाँति समझकर और देवता भी उसे नमस्कार करते हैं जो इस धर्म का पालन आत्मार्थी संयम का मार्ग अपनाते हैं. जबकि भोगलोलप करते हैं। समस्त ज्ञान का भी सार यही है। कहा गया हैविषयकषाय के दलदल में फँसकर संसार-समुद्र में गोते खाते एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं। रहते हैं। अहिंसा संयम चेव, एयावंत वियाणिया।। ब्रह्मचर्य शब्द 'ब्रह्म+चर्' से बना है। ब्रह्म का अर्थ है ज्ञानी के ज्ञान सीखने का सार यही है कि वह किसी प्राणी आत्मा और चर् का अर्थ है चलना, रमण करना। अतः ब्रह्मचर्य की हिंसा न करे। अहिंसा का सिद्धान्त ही सर्वोपरि है। यही का अर्थ है आत्मा में रमण करना। श्रेयोमार्गी ही आत्मा में रमण विज्ञान है। कर सकता है कहा भी गया है ब्रह्मचर्य और संयम पर्यायवाची शब्द हैं। जो ब्रह्मचर्य का शरीर है तो प्राण है। पालन करेगा वही संयम से रह सकेगा। जो संयम पालन करेगा शील है तो शान है।। वही आत्मा में रमण कर सकेगा। संयम का अर्थ है, सं+यम सं 'नवल' आत्मा से बात करो = अच्छी तरह से और यम अर्थात मन, वचन, काया के योगों विनय है तो वरदान है।। पर नियंत्रण। अर्थात् समतापूर्वक यम में प्रवृत्त होना। जाग्रत यदि ब्रह्मचर्य का पालन करना है तो बादाम, काजू खाना साधक को ही मुनि कहा जाता है। पाप-प्रवेश का कारण ही छोड़ना पड़ेगा, उसके स्थान पर त्याग के मेवे खाने पड़ेंगे- अजागृति है, असावधानी है। वृहत्कल्पभाष्य में कहा गया हैमेवे खाओ त्याग के, जो चाहो आराम। 'जागरण णरा णिच्चं।' जो सोवत है वह खोवत है। इन भोगों में क्या रखा, नकली आम बादाम।। जो जागत है वह पावत है।। जैन-धर्म शुद्ध सनातन होने से संयममार्ग की विशेष प्रेरणा जागृत साधक को ही मुनि कहते हैं। आचारांग में भी उल्लेख हैदेता है। किन्तु वह मात्र निवृत्तिप्रधान ही नहीं, अपितु उसमें प्रवृत्ति को भी स्थान है, किन्तु किससे निवृत्त हों और किसमें "सुत्ता अमुणि, मुणिणो सया जागरंति।" प्रवृत्ति करें, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है जो सोते हैं वे अमुनि हैं, मुनि जो सदैव जाग्रत ही रहते हैं। एगे औनियत्तिणं एगे ओ पवत्तेणं। असंयमी पापबुद्धि प्राणी का सोते रहना ही अच्छा है। अपने असंजमे विवत्ति च, संजमे य पवत्तेणं। तन, मन इंद्रियों और कामनाओं पर विजय प्राप्त करना ही संयम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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