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________________ ब्रह्मचर्य-तपोत्तमम् परमपूज्य व्याख्यानवाचस्पति आचार्यदेव श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज....y भारतीय स्वर्णयुग के पावन प्रभात की प्रथम किरण ने जब माहात्म्य से आज कई शास्त्र भरे पड़े हैं, उन्होंने एक स्वर से वसुन्धरा के अंचल को अपनी चित्र-विचित्र रेखाओं से अलंकृत इसकी प्रशंसा कर अपनी शास्त्रीय सार्थकता सम्पादित की है। किया, तो उसके आलोक से आलोकित होकर परमोच्च पदासीन ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता हैअमरराज ने भी अपने देवताओं सहित स्वनामधन्य पुण्यप्रधान कायेन मनसा वाचा, सर्वावस्थासु सर्वदा। इस भारत देश की मुक्तकंठ से प्रशंसा की थी। उस समय हमारा सर्वत्र मैथुनत्यागो, ब्रह्मचर्य प्रचक्षते।। यह देश कितना महत्त्वशाली एवं समृद्धि-वैभव वाला होगा, यह शरीर, मन और वचन से सब आस्थाओं में सर्वदा और कल्पनातीत है? निम्नांकित पद्य से आज भी हम इस कथन को सर्वत्र मैथुन-(संभोग)-त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं। उपर्युक्त मत सत्य के अत्यधिक समीप पाते हैं। से कायिक मानसिक और वाचिक ये तीन प्रकार के ब्रह्मचर्य होते गायन्ति देवाः किल गीतकानि, हैं। इन तीनों से ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले व्यक्ति सम्पूर्ण धन्यास्तु ये भारतभूमिभागे। ब्रह्मचारी होने योग्य हैं। विविध ब्रह्मचर्य में मानसिक ब्रह्मचर्य ही स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते, सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि इसका पालन करने पर कायिक और वाचिक भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।। ब्रह्मचर्य का स्वभावतः पालन हो जाता है। प्रायः बहुत से मनुष्य वस्तत: है भी यह ऐसा ही देश, जिसकी प्रशंसा में देवता मनोविज्ञान का महत्त्व न जानकर मानसिक ब्रह्मचर्य की अवहेलना गेत गाकर यह कहें कि स्वर्गापवर्ग को प्रदान करने वाली इस करते हैं। वे वास्तव में मूर्खता करते हैं। उन्हें यह मालूम नहीं कि भारतभूमि में वे ही धन्य हैं, जो देवता से पुनः पुरुष हो, इस भूमि मन की प्रेरणा से ही पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ प्रवृत्ति करती हैं। पर निवास करते हैं। इसकी महत्ता का एकमात्र कारण यही था । कहा गया भी है - कि हमारे देश के उस गौरव-गरिमामय वैभव-विकास के आश्रयभूत परम स्वार्थत्यागी एवं त्रिकालदर्शी मुनि, महर्षि तथा यन्मनसा मनुते तद्वाचा वदति, महात्माओं ने सामाजिक जीवन को नियमबद्ध करने, ईश्वरीय यद्वाचा वदति तत्कर्मणा करोति, यत्कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते। सत्ता को स्थिर रखने तथा मानवीय सृष्टि को कुमार्गगामिनी होने से बचाने के उद्देश्य से अनेकानेक शास्त्रों की रचना के साथ वे जिसका मन में चिंतन किया जाता है, वही वाणी से निकलता अमूल्य, उच्च तथा स्वाभाविक विधान निर्मित किए जिनका है। जो कुछ वाणी से निकलता है, वही कर्म किया जाता है और जैसा अनुकरण कर हमारा यह देश सहज ही में वह गौरवमय परमोच्चपद कुछ कर्म किया जाता है वैसा उसका फल भी मिलता है। अतः मन प्राप्त कर सकता था। प्राचीन महर्षियों के प्रणीत सत्सैद्धान्तिक की स्पष्ट रूप से प्रधानता सिद्ध है। जो मनुष्य मन पर अधिकार नहीं विधानों में ब्रह्मचर्य को प्रथम और सर्वश्रेष्ठ स्थान मिला। संसार कर सकता। वह किसी भी प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर कर सकता। वह किसा भा प्रकार के की प्राथमिक अवस्था में यह उनकी अपूर्व योग्यता थी, जिसके सकता। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। गीता में कहा फलस्वरूप कई शताब्दियों तक ब्रह्मचर्य-प्रथा का प्रचार धार्मिक भी गया है कि 'मन एवं मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः।' प से भारत में ही नहीं समस्त भूमंडल में उत्तरोत्तर बढ़ता ही जिसकी मनःसाधना सिद्ध हो गई, वह दूसरे विषयों पर ग और ब्रह्मचर्यव्रतधारी तपोनिष्ठ भारत के गुरुतम गौरव को सहज ही अधिकार कर सकता है। अतः मानसिक ब्रह्मचर्य का माते रहे। अतएव यह निर्विवाद सिद्ध है कि भारत देश के पालन करना सर्वश्रेष्ठ है। एक पौराणिक शिक्षाप्रद कथा भी है - भारतीय गौरव का मूलतत्त्व ही ब्रह्मचर्य है। इसके महिमाशाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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