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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म भगवान् महावीर ब्रह्माग्नि से दीप्त ऋषिकल्प महामानव अनन्तदर्शन, अनन्त आनंद और अनन्त तीर्थ के धारक बन गये थे। थे। इसलिए उनके चिन्तन में ज्ञान की बातें अधिक है। शास्त्र उनका अन्तःकरण सतत् क्रियाशील और आत्मान्वेषी हो गया था। की बातें कम। वे स्वयं ज्ञानावतार थे। ज्ञाता और ज्ञेय से परे। साधना की सिद्धि के बाद भगवान महावीर सर्वलोक ज्ञान प्रज्ज्वलित अग्नि की तरह है और शास्त्र ज्ञानाग्नि के बुझ और सर्वभाव जानने-देखने लगे थे। उनका साधनाकाल समाप्त जाने के बाद अवशिष्ट राख की तरह। ज्ञान की अग्नि सभी कोई हो गया था। अब वे सिद्धिकाल की मर्यादा में पहँच गये थे। सह नहीं पाते। शास्त्र की बात तो सभी संभाल लेते हैं। भगवान तपोजीवन के तेरहवें वर्ष के सातवें दिन वे केवली बन गये थे। महावीर ने शास्त्र की बातें नहीं की हैं। ज्ञान की बातें कही हैं, भगवान ने अपना पहला प्रवचन देव-परिषद में किया जिनका सम्बन्ध दुःखतप्त प्राणियों के आर्तिनाश से जुड़ा है। था। अति विलासी तथा व्रत-संयम के अवमूल्यनकारी देवों की ज्ञान के अंगार से जूझना जितना असाधारण है, शास्त्र की राख । सभा में उनका पहला प्रवचन निष्फल हो गया। भगवान् जृम्भक को अपनाना उतना ही साधारण। शास्त्र की राख को मानव ग्राम (जंभियगाम) से विहार कर मध्यम पावापुरी पधारे। वहाँ बदल सकता है, किन्तु ज्ञान की आग तो उसी को बदल देगी। सोमिल नामक ब्राह्मण ने एक विराट् यज्ञ का आयोजन किया रूपान्तरित कर डालेगी। ज्ञान सत्य का ही पर्याय है, इसलिए था। जिसकी पूर्ति के लिए वहाँ इंद्रभूति प्रमुख ग्यारह वेदविद् तीखा होता है, चुभने वाला। सत्य सदा अपराजित रहता है, किन्तु । ब्राह्मण आये हुए थे। धर्म के नव्य व्याख्याता भगवान् महावीर के नियति यह है कि सत्य के पक्षधरों को आजीवन असत्य के विरोध पधारने की बात सुनकर उन ब्राह्मणों में पाण्डित्य का भाव उद्ग्रीव से जूझना पड़ता है। भगवान् महावीर भी यही नियति रही। हुआ। इन्द्रभूति उठे और पराजित करने की भावना से अपने सभी भगवान् महावीर ऐसे अप्रतिम महाप्राज्ञ थे, जिनके हाथ शिष्यों के साथ वे महावीर के समवसरण में आये। में ज्ञान था, शास्त्र नहीं। शास्त्र यदि कीचड़ के समान है, तो ज्ञान इंद्रभूति को जीव के बारे में संदेह था जिसे मनःपर्याय - कीचड़ में उत्पन्न कमल की तरह। महावीर ने अपने को शास्त्र ज्ञानी भगवान ने उनके समक्ष रखा गया। इंद्रभूति विस्मित रह की कीचड़ से निकालकर कमल की तरह रूपान्तरित किया था। गये। वे सहम गये। उन्हें अपने सर्वथा प्रच्छन्न विचार के भगवान् सहा गये। उन्हें अपने सार ग्रहण करने के बाद भूसे की तरह ग्रन्थ का त्याग कर वह द्वारा प्रकाशित किये जाने पर घोर आश्चर्य हुआ। उनकी अन्तरात्मा निर्ग्रन्थ हो गये थे। इसके अतिरिक्त वे भावविशुद्ध होने के भगवान् के चरणों में झुक गयी। जीव और आत्मा को एक दूसरे कारण मन से भी निर्ग्रन्थ हो गये थे और बाहर से भी निर्ग्रन्थ या का पर्याय मानने वाले भगवान् ने उनका संदेह-निवर्तन किया। अचेलप्राय हो गये थे। इस प्रकार, वे शास्त्र, मन और शरीर, तीनों इंद्रभूतिप्रमुख (जिनमें अग्निभूति, वायभूति आदि वेदविदों ही स्तरों पर अपरिग्रही हो गये थे। इतना ही नहीं, उनकी ज्ञानाग्नि के नाम उल्लेखनीय हैं) ग्यारहों ब्राह्मणविद् उठे, भगवान को के चतुर्दिक उठने-बैठने वाले भी उनसे अपने को रूपान्तरित नमस्कार किया और उनके शिष्य बन गये। भगवान ने उन्हें छह करने की प्रेरणा प्राप्त करते थे। किन्तु हैरानी की बात यह है कि जीवनिकाय (पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, त्रसकायिक) जिस प्रकार धर्म का विरोध अधार्मिक नहीं करते वरन् तथाकथित पाँच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) धार्मिक करते हैं। उसी प्रकार महावीर का विरोध सच्चे ज्ञानियों तथा पच्चीस भावनाओं (पच्चीस प्रकार के आत्मपर्यवेक्षण) से नहीं, तथाकथित ज्ञानियों, यानी शास्त्र की राख के पूजकों ने का उपदेश दिया। गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति जैनवाङ्मय में गौतम किया। किन्तु विस्मय की बात यह है कि भगवान् महावीर का नाम से प्रतिष्ठित हुए। वहीं भगवान् के प्रथम गणधर और ज्येष्ठ विरोध ज्यों-ज्यों बढ़ता गया, उनके धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्त शिष्य बने। भगवान् के साथ इनके संवाद और प्रश्नोत्तर इनके विस्तार पाते चले गये। बाईस परीषहों को सहन करने वाले इसी नाम से उपलब्ध होते हैं। भगवान् महावीर प्रकृतिविजेता हो गये थे। बारह वर्ष और साढे छह मास तक कठोर चर्या का पालन करते हुए वे आत्मसमाधि में भगवान् महावीर की तपःपूत वाणी ने श्रमणों को तो लीन रहे। भगवान् साधनाकाल में समाहित हो गये थे, अपने-आप आकृष्ट किया ही अनेक ब्राह्मणों अन्यतीर्थिक संन्यासियों और में केवली एकमेक हो गये थे। वे अनन्त चतुष्टय, अनन्तज्ञान, परिव्राजकों को भी आवर्जित किया। वे भगवान् पार्श्वनाथ की चातुर्यामिक धर्मपरम्परा के श्रमण, भगवान् महावीर के शिष्य ఆరుసారంగారరరరరరరరరరర రరరరరరరరరరonvincorporate Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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