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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म . जैन-परम्परा के अनुसार अरिष्टनेमि कृष्ण के चचेरे भाई से अधिक प्राचीन नहीं है। मौर्यकालीन अभिलेखों में निर्ग्रन्थों थे। अंतकृद्दशांग के अनुसार कृष्ण के अनेक पुत्रों और पत्नियों का तो उल्लेख है, किन्तु पार्श्व का कोई उल्लेख नहीं है। ने अरिष्टनेमि के समीप संन्यास ग्रहण किया था। जैन-आचार्यो परम्परागत मान्यताओं के आधार पर पार्श्वनाथ मौर्यकाल ने इनके जीवनवृत्त के साथ-साथ कृष्ण के जीवनवृत्त का भी से ४०० वर्ष पर्व हए हैं. किन्त इनके सम्बन्ध में अभिलेखीय काफी विस्तार के साथ उल्लेख किया है। जैन-हरिवंशपुराण में साक्ष्य ईसा की प्रथम शताब्दी का उपलब्ध है।२०० मथुरा के तथा उत्तरपुराण में इनके और श्रीकृष्ण के जीवनवृत्त विस्तार के अभिलेख (संख्या ८३) में स्थानीय कुल के गणि उग्गहीनिय के साथ उल्लेखित हैं। ऋग्वेद में अरिष्टनेमि के नाम का उल्लेख शिष्य वाचक घोष द्वारा अर्हत् पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा को है। किन्तु नाम उल्लेख मात्र से यह निर्णय कर पाना अत्यंत स्थापित करने का उल्लेख है। डा जेकोबी ने बौद्ध-साहित्य कठिन है कि वेदों में उल्लिखित अरिष्टनेमि जैनों के २२वें के उल्लेखों के आधार पर निर्ग्रन्ध सम्प्रदायका अस्तित्व प्रमाणित तीर्थंकर हैं या कोई और। जैन-परम्परा अरिष्टनेमि को श्रीकृष्ण का करते हए लिखा है कि "बौद्ध निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय को एक प्रमुख गुरु मानती है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने छान्दोग्य उपनिषद् में सम्प्रदाय मानते थे, किन्तु निर्ग्रन्थ अपने प्रतिद्वंद्वी अर्थात् बौद्धों देवकीपत्र कृष्ण के गुरु घोर अंगिरस के साथ अरिष्टनेमि की साम्यता की उपेक्षा करते थे। इससे हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि बुद्ध बताने का प्रयास किया है। धर्मानन्द कोशाम्बी का मन्तव्य है कि के समय निग्रंथ-सम्प्रदाय कोई नवीन स्थापित सम्प्रदाय नहीं अंगिरस भगवान नेमिनाथ का ही नाम था।१९६ यह निश्चित ही था। यही मत पिटकों का भी जान पड़ता है।" २०२ सत्य है कि अरिष्टनेमि और घोर अंगिरस दोनों ही अहिंसा के प्रबल डॉ. हीरालाल जैन ने लिखा है - "बौद्ध-ग्रन्थ समर्थक हैं किन्तु इस अरिष्टनेमि की नाम -साम्यता बौद्ध परम्परा 'अंगुत्तरनिकाय' 'चतुक्कनिपात' (वग्ग ५) और उसकी 'अट्ठकथा' के अरनेमि बुद्ध से भी देखी जाती है, जो विचारणीय है। में उल्लेख है कि गौतम बुद्ध का चाचा (वप्प शाक्य) निग्रंथ २३. पार्श्वनाथ श्रावक था।२०३ अब यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ये निर्ग्रन्थ कौन थे? ये महावीर के अनुयायी तो हो नहीं सकते, पार्श्व को वर्तमान अवसर्पिणी काल का तेईसवाँ तीर्थंकर क्योंकि महावीर बुद्ध के समसामयिक हैं। इससे इस बात की माना गया है।९० महावीर के अतिरिक्त जैन-तीर्थंकरों में पार्श्व पुष्टि होती है कि महावीर और बुद्ध से पहले निर्ग्रन्थों की कोई ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिनको असन्दिग्ध रूप से ऐतिहासिक परम्परा अवश्य रही होगी, जिसका अनुयायी बुद्ध का चाचा था। व्यक्ति माना जा सकता है। इनके पिता का नाम अश्वसेन, माता अतः हम कह सकते हैं कि बुद्ध और महावीर के पूर्व पार्वापत्यों का नाम वामा और जन्मस्थान वाराणसी माना गया है। १९८ की परम्परा रही होगी। पालि त्रिपिटक साहित्य में पार्श्वनाथ की इनके शरीर की ऊँचाई नौ रत्नि अर्थात् नौ हाथ तथा वर्ण श्याम परम्परा का एक और प्रमाण यह है कि सच्चक का पिता निर्ग्रन्थ माना गया है। १९९ इनके पिता वाराणसी के राजा थे। जैन-कथा - श्रावक था। सच्चक द्वारा महावीर को परास्त करने का आख्यान साहित्य में हमें उनके दो नाम उपलब्ध होते हैं - अश्वसेन और भी मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि सच्चक और महावीर हयसेन। महाभारत में वाराणसी के जिन राजाओं का उल्लेख 4 समकालीन थे। अस्तु सच्चक के पिता का निर्ग्रन्थ श्रावक होना उपलब्ध है, उनमें से एक नाम हर्यअश्व भी है, सम्भावना की यह सिद्ध करता है कि महावीर के पूर्व भी कोई निर्ग्रन्थ-परम्परा जा सकता है कि हयअश्व और अश्वसेन एक ही व्यक्ति रह हा। थी. जो पार्श्वनाथ की ही परम्परा रही होगी।२०४ पार्श्व की ऐतिहासिकता - डॉ. सागरमल जैन के अनुसार मज्झिमनिकाय के 'महासिंहनादसत्त' में बुद्ध ने अपने किसी भी व्यक्ति की ऐतिहासिकता सिद्ध करने के लिए प्रारम्भिक कठोर तपस्विजीवन का वर्णन करते हए तप के चार अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्यों को महत्त्वपूर्ण माना जाता प्रकार बतलाए हैं - तपस्विता. रूक्षता. जगप्सा और प्रविविकता। है। पार्श्व की ऐतिहासिकता के विषय में अभी तक ईसा पूर्व का जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और पीछे उनका परित्याग कोई अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध नहीं हुआ है। भारत में प्राप्त कर दिया था।२०५ इन चारों तपों का महावीर एवं उनके अनुयायियों अभी तक पढ़े जा सकने वाले प्राचीनतम अभिलेख मौर्यकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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