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________________ - यतीन्द्रसूरि रमारक ग्रन्थ : जैन-धर्म ८. अनन्तवीर्य - विघ्न रूप अन्तराय कर्म का क्षय होने (उनके पालनार्थ उत्सर्गापवादादि विधिमागों के गढार्थों को से आत्मा अनन्तवीर्य प्राप्त करती है। . प्रयत्नपूर्वक समझाने) वाले 'आचार्य'९९ महाराज कहलाते हैं। इन आठ गुणों से युक्त आत्मा सिद्ध कहलाती है। अरिहंत भगवान के द्वारा प्रकाशित तत्त्वों का जनता में सिद्धात्माओं का संसार में पुनरागमन नहीं होता, क्योंकि संसार कशलतापूर्वक प्रसार करना, संघ को उनके दिखलाए मार्ग पर भ्रमण के कारणभूत आठों कर्मों का आत्मा से सर्वथा जुदापन चलाना, आत्मसाधक मनिवरों को सारणा. वारणा, चोयणा व जो हो गया है। वाचकमुख्य श्रीमद् उमास्वातिजी महाराज ने पडिचोयणा द्वारा शिक्षा देना यह कार्य आचार्य महाराज का होता तत्त्वार्थाधिगमसत्र के स्वोपज्ञभाष्य के अंत में जो करिकाएँ लिखी है। आचार्य महाराज स्व-पर सिद्धांतनिपण समयज्ञ आचारवान हैं, उन्हीं में फरमाया है - द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के ज्ञाता और प्रकृति से सौम्य होते हैं। दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः। सांसारिक प्राणियों के लिए आचार्य महाराज भाव-वैद्य हैं। जिस कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः ।। प्रकार भयंकर से भयंकर रोगों से आक्रांत रोगी कुशल वैद्य से रोग की उपशमनकर्ता औषधि लेकर पथ्यापथ्य का जैसा वैद्य जिस आत्मा ने एक बार कर्ममल से मुक्त होकर मोक्ष . ने कहा, वैसा पालन कर आहार-विहार में सावधानता रखकर प्राप्त कर लिया है, वह पुनः संसार में कैसे आ सकती है ? जिस थोड़े समय में ही रोग से मुक्त होता है। उसी प्रकार मिथ्यात्व प्रकार धान्यकण दग्ध होने पर पुनः वह नहीं उगता, उसी प्रकार रूप भयंकर रोग से आक्रांत प्राणियों को भाववैद्य आचार्य महाराज कर्मबीज के भस्म होने पर आत्मा भी पुनः उत्पत्ति और नाश को सम्यक्त्व रूप औषध, धर्मरूप (जिनवचन रूप) धारोष्ण दूध में यानी जन्म-मरण को नहीं करती। आवश्यकनियुक्ति में सिद्ध। मिलाकर देते हैं। राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया और लोभ से भगवान का वर्णन इस प्रकार आया है - बचने रूप पथ्य दिखला कर उन्हें कर्म रूप रोग से मुक्त करतेनिच्छिन्न सव्व दुक्खा जाइजरामरणबंध विमुक्का। करवाते हैं। कर्मों के आवरण से आवरित सांसारिक प्राणियों अव्वाबाहं सुक्खं अणु हवंती सासयं सिद्धा।। को जिन-वीतराग-भाषित तत्त्व रूप दीपक देकर सन्मार्गगामी बनाते हैं। जीवन में जहाँ कटुता, कलह, विकार, ईर्ष्या द्रोहादि सब दुःखों का नाश करके, जन्म-जरामरण और कर्मबन्ध घुस कर महानतम अनर्थों का जाल फैलाते हैं, वहाँ आचार्य से मुक्त हुए तथा किसी भी प्रकार की बाधाओं से रहित शाश्वत महाराज इन विचारों के द्वारा उत्पन्न अशान्ति की ज्वाला को सुख का अनुभव करने वाले सिद्ध कहलाते हैं। वीतरागप्रकाशित तत्त्वौषध देकर शांत करते हैं। ऐसे सिद्धों के नाम - जिनेन्द्रवचनानुसार चारित्र धर्म के पालक सद्धर्म के निर्भय वक्ता, सिद्धि त्ति य बद्ध त्ति य, पारगय त्ति य परंपरगय ति। समयज्ञ एवं स्व-पर समयनिपुण आचार्य को श्री गच्छाचार उम्मुक्क कम्म कवया, अजरा अमरा असंगाय ।। पयन्ना में तीर्थंकर की उपमा दी गई है - 'तित्थयर समो सूरि, सम्मं जो जिणमयं पयासेड़' सिद्ध, बुद्ध, पारगत, परम्परागत कर्मविचोन्मुक्त, अजर, अमर और असंगत ये नाम सिद्ध भगवन्तों के हैं। आचार्य :- यानी जो आचार्य भली प्रकार से जिनेन्द्रधर्म की प्ररूपणा चरमंश्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक-सूत्रनियुक्ति । करता है, वह तीर्थंकर के समान है। महानिशीथसूत्र के पाँचवें में आचार्य का लक्षण लिखा है - . अध्ययन में इसी आशय का कथन आया है - पंच विहं आयारं, आयरमाणा तहा पभाया संता। से भयवं ? किं तित्थयर संतियं आणं नाइक्कमिज्जा आयारं दंसंता, आयरिया तेण वुच्चन्ति ।। उदाह आयरिय संतियं ? गोयमा ? चउविंहा आयरिया भवन्ति, पाँच प्रकार के आचार का स्वयं पालन करने वाले, तं जहा - नामायरिया, ठवणायरिया, दव्वायरिया, भावायरिया तत्थ णं जे ते भावायरिया ते तित्थयर समाचेव दट्ठव्वा, तेसिं प्रयत्नपूर्वक दूसरों के सामने उन आचारों को प्रकाशित करने संतिय आणं नाइक्कमेज्ज ति'। वाले तथा श्रमणों को उन पाँच प्रकार के आचारों को दिखलाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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