SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 615
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. संस्कारवत्व यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म व्याकरणीय नियमों से युक्त (भाषा की दृष्टि से सब प्रकार के दोषों से रहित ) । २. औदात्य - उच्च स्वर से उच्चारित। ३. उपचारपरीतता - ग्रामीण दोषों से रहित । ४. मेघगम्भीरघोषत्व - मेघ के जैसे गम्भीर घोषयुक्त । ५. प्रतिनादविधायिता-प्रतिध्वनि से युक्त (चारों ओर दूर तक गुंजित होने वाली )। ६. दक्षिणत्व - सरलतायुक्त । ७. उपनीतरागत्व मालकोशादि रागों से युक्त अर्थात् संगीत की प्रधानता वाली । ये सात अतिशय शब्द की अपेक्षा से होते हैं । ८. महार्थता दीर्घार्थ वाली । ९. अव्याहतत्व - पूर्वापर विरोध से रहित (पहले कहा तथा बाद में कहा - उसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं होना) । १०. शिष्टत्व - अभिमत सिद्धांत-प्रतिपादक और वक्ता की शिष्टता की सूचक । ११. संशयानामसम्भवः - जिसके श्रवण से श्रोताजनों का संशय पैदा ही न हो। १२. निराकृतोऽन्योत्तरत्व - किसी भी प्रकार के दोष से रहित (जिस कथन में किसी प्रकार का दूषण न हो और न भगवान् को वही दूसरी बार कहना पड़े । १३. हृदयंगमता - श्रोता के अंतःकरण को प्रमुदित करने वाली । १४. मिथः साकांक्षता पदों और वाक्यों की सापेक्षता से युक्त । १५. प्रस्तावौचित्य - यथावसर देशकाल भाव के अनुकूल । १६. तत्त्वनिष्ठता तत्त्वों के वास्तविक स्वरूप को धारण करने वाली । १७ अपकीर्णप्रसृतत्व बहु विस्तार और विषयान्तर दोष से रहित । १८. अस्वश्लाघान्यनिन्दिता अपनी प्रशंसा और दूसरों क निन्दा इत्यादि दुर्गुणों से रहित १९. आभिजात्य - प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप भूमिकानुसारी । २०. अस्तिस्निग्ध-मधुरत्व घृतादि के समान स्निग्ध और शर्करादि के समान मधुर । २१. प्रशस्यता - प्रशंसा के योग्य। २२. अमवेधिता - दूसरों के मर्म अथवा गोप्य को न प्रकाशित करने वाली । २३. औदार्य - प्रकाशनयोग्य अर्थ को योग्यता से प्रकाशित करने वाली । २४. धर्मार्थप्रतिबद्धता धर्म और अर्थ से युक्त । २५. कारकाद्यविपर्यास कारक, काल, लिंग, वचन और क्रिया आदि के दोषों से रहित । २६. विभ्रमादिवियुक्तता विभ्रम विक्षेप आदि चित्त के दोषों से रहित । २७. चित्रकृत्व श्रोताजनों में निरंतर आश्चर्य पैदा करने वाली । २८. अद्भुतत्व अश्रुतपूर्व । २९. अनतिविलम्बिता अति विलम्ब दोष से रहित । ३०. अनेकजातिवैचित्र्य - नाना प्रकार के पदार्थों का विविध प्रकार से निरूपण करने वाली । ३१. आरोपित विशेषता - अन्य के वचनों की अपेक्षा विशेषता दिखलाने वाली । ३२ Jain Education International - - - - - सत्वप्रधानता - सत्वप्रधान एवं साहसिकपन से युक्त । ३३. वर्णपदवाक्यविविक्तता - वर्ण, पद, वाक्यों का विवेक (पृथक्पृथ्क्) करने वाली । ३४. अव्युच्छित्ति-प्रतिपाद्य विषय को अपूर्ण न रखने वाली । ३५. अखेदित्व किसी भी प्रकार के मानसिक, वाचिक अथवा कायिक खेद से रहित । इस प्रकार भगवान् चार मूलातिशय, आठ प्रातिहार्य, चौतीस अतिशयों से और पैंतीस वाणी के अतिशयों से युक्त होते हैं। For Private अरिहंत भगवान् की उक्त लोकोत्तर एवं चित्त को चमत्कृत करने वाली विभूतियों के विषय में हमको यह आशंका हो सकती है कि वीतराग अरिहंत भगवान् इतनी विभूतियों से युक्त थे, ऐसा कैसे मान लिया जाए ? इसका निराकरण है कि हम लोग कर्मावरण से आवरित होने से अपने स्वयं के ही बलपराक्रम को नहीं समझते हुए ऐसी बातों को सुनकर आश्चर्यान्वित हो चट से कह देते हैं कि ये तो असम्भव है, परन्तु परम योगीन्द्रों में इतनी विभूतियाँ होना असम्भव नहीं है। जिस प्रकार हम विषय-वासना के दास और स्वार्थ में मग्न हैं, वैसे वे नहीं होते। अतः उन्हें विषय-वासना अपनी ओर नहीं खींच सकती। वे मेरु के समान अप्रकम्प्य होते हैं। उनके पास उक्त विभूतियों का होना कोई आश्चर्य नहीं है। वर्तमान युग में भी सामान्य योगसांधना के साधक भी हमको आश्चर्यान्वित करने वाली महिमा वाले होते हैं। तो भला जो आत्मा की सर्वोच्चतम दशा को प्राप्त हो गए हैं, जिनके निकट किसी प्रकार की वासना नहीं है, उनके समीप ऐसी आश्चर्यजन्य विभूतियों का होना कोई असम्भव बात नहीं है। - प्रश्न- ऐसे महिमाशाली अरिहंतों को अरि यानी शत्रुओ को और हंताणं यानी मारने वाले इस सम्बोधन से क्यों सम्बोधित किया जाता ? यदि अपने शत्रुओं को मारने वाले को अरिहंत कहा जाता है, तो संसार के सब जीव इस संज्ञा को प्राप्त होंगे और जो डाकू तथा चोर आदि जितने भी अत्याचारी हैं, वे सब के सब भी इस संज्ञा को प्राप्त क्यों नहीं होंगे ? क्योंकि वे भी तो अपने शत्रुओं का ही संहार करते हैं और मित्रों का पालन करते हैं। अत: इस हिसाब से उन्हें भी हमारी समझ से तो अरिहंत इस संज्ञा से ही सम्बोधित करना चाहिए । An upondonna उत्तर - धन्यवाद महोदय, आपका एवं आपके सोचने के प्रकार का अभिनन्दन। आपने तो ऐसी बात करके अपनी बुद्धि Personal Use Only Seafordari www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy