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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ : जैन-धर्म - "अट्ठविहं पि य कम्मं, अरिभूयं होइ सव्व जीवाणं । अनुत्तर विमान में मध्यभव करके पुनः मनुष्यलोक में शुभकर्मा तंकम्ममरिहंता, अरिहंता तेण वुच्चंती।। माता-पिता के यहाँ जन्म लेकर जिनका सुरासुरेन्द्रों ने च्यवन, अरिहंति वंदण नमसणाणि अरिहंति पूय सस्कारं । जन्म, दीक्षा, कल्याणक-महोत्सव मनाया है, ऐसा चारित्र धर्म सिद्धि गमणंच अरिहा, अरिहंता तेण वुच्चंति ।। अंगीकार करके आत्मा के जो शानावरणीयादि आभ्यन्तर शत्र हैं, देवासुरमणुए सुय, अरिहा पुया सुरुत्तमा जम्हा । उनको निजबल-पराक्रम से परास्त करके केवलज्ञान-केवलदर्शन आरिणो हंता अरिहंता, अरिहंता तेण वच्चंति ।।" प्राप्त करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग बनती हैं, जिन्हें हम अरिहंत, अप्रशस्त भावों में रमण करती इन्द्रियों द्वारा काम-भोगों जिन, जिनेन्द्र आदि अनेक गुण-निष्पन्न नामों से पहचानते हैं। की चाहना को तथा क्रोध, मान, माया और लोभादि कषायों, ऐसे श्री तीर्थंकर-अरिहंतों के चार मुख्य अतिशय, आठ क्षुधा, तृषादि बाईस परीषहों, शारीरिक और मानसिक वेदनाओँ महाप्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय तथा उनकी वाणी के पैंतीस के उपसर्गों का नाश करने वाले, सब जीवों के शत्रुभूत उत्तर अतिशय होते हैं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं : प्रकृतियों सहित ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का नाश करने वाले, वन्दन और नमस्कार, पूजा और सत्कार के योग्य हों और सिद्धि चार मूल (मुख्य) अतिशय - (मोक्ष)-गमन के योग्य हों, सुरासुरनरवासवपूजित तथा आभ्यन्तर १. ज्ञानातिशय - अरिहंत भगवान जन्म से ही मतिश्रत अरियों को मारने वाले जो हों, वे अरिहंत कहलाते हैं। और अवधिज्ञान से युक्त होते हैं। दीक्षा ग्रहण करते ही चौथा श्रीमद् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी विशेषावश्यकभाष्य में । मन:पर्याय ज्ञान और घनघाती कर्मों का क्षय होने पर केवल लिखते हैं कि: ज्ञान प्राप्त हो जाता है, जिससे विश्व के सब पदार्थों को देखकर, "रागद्दोस कसाए य, इन्दियाणी पंच वि परिसहे । भूत, भविष्य और वर्तमान के समस्त भावों को यथावत् जानना उवसग्गे नामयंता, नमोऽरिहा तेण वुच्चंति ।।'' तथा उनका यथार्थ व्याख्यान करना ज्ञानातिशय है। २. वचनातिशय - सुर, मनुष्य, तिर्यंचादि समस्त जीवों राग-द्वेष और चार कषाय, पाँचों इन्द्रियाँ तथा परीषहों को के समग्र संशयों को एक साथ दूर करने वाली परम मधुर शांतिप्रद झुकाने वाले अर्थात् इनके सामने स्वयं न झुकने वाले, अपितु उपादेय तत्त्वों से युक्त ऐसी वाणी, जिसके श्रवण से कर्मों से इन्हें ही झुकाने वाले अरिहंत कहलाते हैं। उनको नमस्कार हो। सन्त्रस्त जीव परम आह्लाद एवं सुख को बिना परिश्रम प्राप्त "सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । कर सकते हैं, यानी सब प्रकार से उत्तम तथा जो जिस भाषा का यथास्थितार्थवादी च, देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।।४।।" भाषी हो, उसको अपनी उसी भाषा में समझ पड़ जाए, ऐसी जो जो सर्वज्ञ हैं, जिन्होंने रागादि दोषों को जीता है, जो त्रैलोक्य भगवद् वाणी उसके अतिशय को वचनातिशय कहते हैं। पूजित हैं, जो पदार्थ जैसे हैं, उनका यथार्थ विवेचन करते हैं, वे ३. पूजातिशय - सुरासुर, नर और उनके स्वामी (इन्द्र देव "अर्हन्" परमेश्वर कहलाते हैं। राजा) जिन की पूजा करके अपने पाप धोते हैं। वह पूजातिशय है। (श्रीमद् हेमचन्द्रसूरि - योगशास्त्र, द्वि. प्र.) - इस प्रकार बहुश्रुत पूर्वाचायों ने विविध प्रकार से अरिहंत ४. अपायापगमातिशय - श्री अरिहंत भगवान जहाँशब्द का अर्थ अनेक ग्रन्थों में किया है। अरिहंत बनने वाली जहाँ विचरण करते हैं, वहाँ-वहाँ से प्रायः सवा सौ योजन तक आत्मा पर्वभवों में अपने जैसी ही सामान्य आत्मा होती है. किसी को किसी प्रकार के कष्ट प्राप्त न हों और जो हों वे भी नष्ट परन्तु अरिहंत बनने से पूर्व यों तो अनेक भवों से वे आत्म - हो जाएँ तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि एवं परचक्र भयादि समस्त साधना में मग्न रहती हैं। तथापि अरिहंत वीतराग बनने से तीसरे उपद्रव दूर होते हैं। वह अपायापगमातिशय है। पर्वभव में विंशतिस्थानक महातप की आराधना करके तीर्थंकर शाळपातिहार्य. नामकर्म निकाचित रूप से बाँधकर देवलोक. ग्रैवेयक अथवा __ अशोकवृक्षःसुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरमासनञ्च । सात हा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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