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________________ डॉ. एस.के. शर्मा कुलपति दूरभाष कार्यालय : ३५८१६० आवास:३५०२६८ फैक्स :९१-५४२-३५०२६८ महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी -२२१००२ दिनांक............. संदेश यह परम सौभाग्य की बात है कि अपने न्याय-नीति, आचार, व्यवहार, साहित्य - साधना, धर्म भावना, विद्यानुराग से बने मुनि उपाध्याय आचार्य काल में जैन शासन की अद्वितीय सेवा करने वाले महान जैनाचार्य श्रीमद्यतीन्द्रसूरिजी का दीक्षा शताब्दी वर्ष दिनांक २२ जून १९९७ सोमवार विक्रम संवत २०५४ आषाढ़ यदि २ से आरम्भ हो चुका हैं। इस पुनीत अवसर पर सर्वप्रथम मैं श्रीमद यतीन्द्रसूरिजी को उनके द्वारा की गई अहर्निश सेवा हेतु शत-शत नमन करता हूँ। असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, अविद्या से विद्या की ओर तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर यात्रा की जिन भूखण्ड पर चिरकाल से साधना की जाती रही हो ऐसे भारत वर्ष के संस्कृति की सबसे भव्य और अमूल्य विशेषता है ऋषि परम्परा। जिसका उत्सगुहृय प्राचीनता में खो गया है, किन्तु उसका प्रवाह कभी नहीं रूका। वैदिक काल में ऋषि हुए फिर दृष्टाओं की एक परम्परा आई, और हुए उपनिषेद के ज्ञानी पुरुष और इसी के साथ श्रमण परम्परा के निर्वाहकों द्वारा घोर साधना एवं तप से अर्जित शक्ति एवं ज्ञान से लोकसेवा का अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया जाता रहा हैं। भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा के रूप में वैदिक परम्परा को सदैव मान्यता मिलती रही हैं। वैदिक परम्परा के समान्तर अपना अस्तित्व रखने वाली श्रमण परम्परा की एक उपशाखा जैन धर्म द्वारा निवृति पर अत्यधिक बल दिया गया, फिर भी उसके द्वारा लोक कल्याण कार्य को अभीष्ट के रूप में स्वीकार किया जाता रहा हैं। इस कथन के प्रमाण स्वरूप जैन परम्परा के चौबीसों तीर्थकरों को अदभुत करना प्रासंगिक है। प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव (आदिनाथ) से आरम्भ होकरके तेडसवें और चौबीसवें तीर्थंकर क्रमशः पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी तक भी तीर्थकर ज्ञान के प्राप्ती के बाद किसी वन अथवा गुफा में एकान्तवास नहिं किए, वरन् उन्होंने समाज में रहकर जगत के कल्याणार्थ अपने जीवन का उत्सर्ग किया। वैदिक तथा श्रमण दोनों ही धाराओं ने स्वतंत्र रूप से अथवा सम्मिलित रूप से ऋषि परम्परा को कायम रखा यद्यपि समय-समय पर इसमें गतिरोध भी आता रहा है तथापि रषि परम्परा का प्रवाह कभी थमा नहीं। विगत शताब्दी में ऋषि परम्परा को जीवंत बनाने वालों में से श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी अग्रणी रहे। बाल्यवस्था में ही माता-पिता का देहान्त हो जाने से तथा स्वजनों द्वारा तिरस्कृत किये जाने के बावजूद श्रीमद यतीन्द्रसूरिजी की जीवन पर्यन्त दूसरों के प्रति दया, करुणा, प्रेम जैसे सद्भाव उनको ऋषि में स्थापित करते हैं। विश्व प्रसिद्ध अभिधान राजेन्द्र कोष के संशोधक, सम्पादक के रूप में आपका पाण्डित्व स्तुत्य हैं। धर्म, नीति, समाज, इतिहास, पुरातत्व की दृष्टियों से उपदेव ए, संग्रहणीय लगभग ६० से अधिक छोटी-बड़ी ऐसी प्रकाशित पुस्तकें जिनके रचियता सम्पादक अथवा संकलनकर्ता आप हैं। जीवन पर्यन्त आपद्वारा की गयी यात्राएँ, संघयात्राएँ, अंजनशलाका प्रतिष्ठायें, तपाराधन, तीर्थोद्धार, मण्डल विद्यालयों की स्थापना, जैसी अनेकानेक सेवाएँ व्यक्ति और समाज हेतु अनुकरणीय आदर्श है। जड़ और चेतन दोनों के प्रति सदैव कल्याण की कामना करने वाले श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी के महान आदर्शों का व्यापक प्रसार एवं प्रचार करते हुए हम उसे अपने जीवन में क्रियान्वित करने हेतु संकल्पबद्ध होकर ही दीक्षा शताब्दी को सार्थक बना सकते हैं। श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वे. पेढ़ी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, राजगढ़ (धार) म.प्र. द्वारा आयोजित श्रीमद यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी के सफलतापूर्वक संचालन एवं सम्पादन हेतु मैं ईश्वर से प्रार्थना करता है। इस अवसर पर प्रकाशित होने वाले स्मारक ग्रन्थ की सफलता हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें। भवदीय एस.के.शमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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