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________________ - चतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन - अहिंसक प्रवृत्ति, सुदृढ़ एवं स्वच्छ आर्थिक व्यवस्था, आध्यात्मिक, कर्मों के फल को भोगता हुआ तथा नवीन कर्मों का बंध करता सामाजिक एवं नैतिक मूल्य, विश्वबंधुत्व की भावना तथा ईश्वर का हुआ गतिशील रहता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता बल्कि कर्म मानवीयकरण आदि मानववादी चिंतनों को अपने में समेटे हुए है। सिद्धान्त के अंतर्गत इच्छा-स्वातंत्र्य को स्थान दिया गया है। वह इस रूप में कि पूर्वकृत कर्मों का फल किसी न किसी रूप में मानव की महत्ता अवश्य भोगना पड़ता है, किन्तु नए कर्मों का उपार्जन करने में मानव की महत्ता को न केवल जैनागमों में बल्कि वैदिक वह किसी सीमा तक स्वतंत्र है। यह सत्य है कि कृतकर्म का ग्रन्थों एवं बौद्ध साहित्य में भी स्वीकार किया गया है। महाभारत भोग किए बिना जीव को मुक्ति नहीं मिल सकती, किन्तु यह के शांतिपर्व में कहा गया है-न मानुषात श्रेष्ठतरं हि किञ्चित। अनिवार्य नहीं है कि प्राणी अमुक समय में अमक कर्म ही अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। धम्मपद में कहा गया उपार्जित करे। वह बाह्य परिस्थिति एवं अपनी आंतरिक शक्ति है- किच्चे मणुस्स पटिलाभो अर्थात् मनुष्य जन्म दर्लभ है। को ध्यान में रखते हुए नए कर्मों का उपार्जन रोक सकता है। इन गोस्वामी तुलसीदास ने भी मानव की दुर्लभता को बताते हुए बातों से स्पष्ट होता है कि कर्मवाद में इच्छा-स्वातंत्र्य तो है किन्तु कहा है- बड़े भाग मानुस तन पाना। सच, सुकर्मों के सीमित है। क्योंकि कर्मवाद के अनुसार प्राणी अपनी शक्ति एवं परिणामस्वरूप ही यह मानव तन प्राप्त होता है। उत्तराध्ययन । बाह्य परिस्थितियों की अवहेलना करके कोई कार्य नहीं कर सूत्र में मानव की गरिमा को बताते हुए कहा गया है-जब अशुभ सकता, जिस प्रकार वह परिस्थितियों का दास है उसी प्रकार उसे कर्मों का विनाश होता है, तब आत्मा शुद्ध, निर्मल और पवित्र अपने पराक्रम की सीमा का भी ध्यान रखना पड़ता है। जैन होती है और तभी उसे मानवजन्म की प्राप्ति होती है। कितनी विद्वान् पद्मनाभ जैनी के अनुसार -जैनधर्म मनुष्य को पूर्ण ही योनियों में भटकने के बाद यह मानव का शरीर आकार रूप धार्मिक स्वतंत्रता देने में हर अन्य धर्म से बढ़कर है। जो कुछ को प्राप्त करता है। तभी तो महावीर ने कहा है-- चिरकाल तक कर्म हम करते हैं और उनके जो फल हैं उनके बीच कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। एक बार कर लिए जाने पर कृत कर्म इधर-उधर भटकने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से सांसारिक जीवों को मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है. सहज नहीं है। दष्कर्म का । हमारे प्रभु बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ते हैं। मेरा स्वातंत्र्य जितना बड़ा है उतना ही बड़ा मेरा दायित्व भी है। मैं फल बड़ा भयंकर होता है। अतएव हे गौतम! क्षणभर के लिए स्वेच्छानुसार चल सकता हूँ, किन्तु मेरा चुनाव अन्यथा नहीं हो भी प्रमाद मत करो। इतना ही नहीं जैन-चिंतन में मानव को सकता और उसके परिणामों से मैं बच नहीं सकता। कर्म के अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और अनन्त आनंदवाला आधार पर व्यक्ति देवत्व को प्राप्त करता है। अर्थात् मानव माना गया है। प्रत्येक मनुष्य में देवत्व प्राप्त करने की जन्मजात स्वयं अपना भाग्य विधाता है। क्षमता होती है। प्रत्येक वर्ण एवं वर्ग का व्यक्ति इस पूर्णता की प्राप्ति का अधिकारी है। जैनकर्मसिद्धान्त की ही भाँति मानववाद भी इच्छास्वातंत्र्य को मानता है। इच्छा-स्वातंत्व्य का यह अभिप्राय नहीं है कि जो मानववाद और कर्मवाद मन में आये, वही करें। ऐसे इच्छा-स्वातंत्र्य के लिए न तो कर्म के विषय में जितनी विस्तत और सक्षम व्याख्या जैन मानववाद में कोई स्थान है और न ही जैन-कर्मवाद में। जिस दर्शन में की गई है, उतनी शायद ही किसी अन्य दर्शन में की। प्रकार जैन-कर्मवाद यह स्वीकार करता है कि मानव स्वयं गई हो। कर्मवाद का एक सामान्य नियम है कि पूर्व में किए गए अपना भाग्य विधाता है उसी प्रकार मानववाद भी मानता है कि कर्मों के फल को भोगना तथा नए कर्मों का उपार्जन करना और व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के बल पर बिना किसी दैविक शक्ति के इसी पूर्वकृत कर्मों के भोग और नवीन कर्मों के उपार्जन की ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है। साथ ही मानववाद कर्म के औचित्य और अनौचित्य का निर्धारण समाज पर उसके परिणाम परम्परा में प्राणी जीवन व्यतीत करता रहता है। किन्तु प्रश्न उठता है कि कर्मवाद में कहीं पर व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता के के आधार पर करता है। इसी प्रकार जैन-दर्शन व्यवहार दृष्टि से कर्म-परिणाम को और निश्चय-दृष्टि से कर्मप्रेरक को औचित्य उपयोग का भी अवसर प्राप्त होता है या मशीन की भाँति पूर्वकृत और अनौचित्य के निर्णय का आधार मानता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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