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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - धर्म है। जब व्यापक (गम्य) का धर्म व्याप्ति विवक्षित हो तब अकलंक के इस विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष और व्यापक का व्याप्य के होने पर होना ही व्याप्ति है और जब अनुपलम्भपूर्वक सर्वदेश और सर्वकाल के उपसंहाररूप व्याप्य (गमक) का धर्म व्याप्ति अभिप्रेत हो तब व्याप्य का अविनाभाव (व्याप्ति) का निश्चय करने वाला ज्ञान तर्क है और व्यापक के होने पर ही होना व्याप्ति है।१२। धर्मभूषण ने व्याप्ति वह प्रमाण है। तर्कशास्त्र का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है, क्योंकि को सर्वोपसंहावती कहा है अर्थात् व्याप्ति सर्वदेशिक तथा यह सन्निहित असन्नहित, नियत-अनियत, देशकाल में रहने सर्वकालिक होती है। यदि यह कहा जाता है कि जहाँ-जहाँ धूम वाले साध्य-साधन के अविनाभाव को अपना विषय बनाता है, वहाँ-वहाँ अग्नि है तो धूम के साथ अग्नि का भी होना सभी है।१४। अकलंक के बाद में आने वाले जैनाचार्य जैसे विद्यानंद. देश एवं सभी काल के लिए होता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता माणिक्यनन्दी, प्रभा चन्द्र, देवसूरि, हेमचन्द्र, धर्मभूषण आदि कि आज धूम के होने पर अग्नि है और कल धूम के होने पर भी सभी उन्हीं का समर्थन करते हैं। ये लोग भी तर्क को ही व्याप्ति अग्नि नहीं होगी। यह भी मान्य नहीं है कि वाराणसी में तो धूम को ग्रहण करने वाला मानते हैं। के साथ अग्नि है, किन्तु प्रयाग में धूम के बिना अग्नि नहीं देखी व्याप्ति के प्रकार - अन्वय व्याप्ति व्यतिरेक व्याप्ति - व्याप्ति जा सकता है। तात्पर्य है कि व्याप्ति देश और काल की सीमाओं के इस विभाजन पर सर्वप्रथम प्रशस्तपाद ने बल दिया है१९५। के अंतर्गत नहीं आती है। साधन और साध्य के बीच की अनुकूलता या भावात्मक रूप व्याप्ति ग्रहण को अन्वय व्याप्ति कहते हैं और साधन साध्य की प्रतिकूलता या अभावात्मक रूप को व्यतिरेक व्याप्ति कहते हैं। व्याप्ति के 'न्याय-दर्शन में व्याप्तिग्रहण का आधार प्रत्यक्ष को माना इस वर्गीकरण को जयन्त भट्ट, गंगेश, केशव मिश्र आदि तथा गया है। प्रत्यक्ष से लिङ्ग दर्शन होता है फिर लिङ्ग और बौद्ध-दर्शन के धर्मकीर्ति, अर्चट आदि ने मान्यता दी है। लिङ्ग संबंध का बोध होता है उसके बाद लिङ्गस्मृति होती है। इस तरह से अनुमान होता है यह (लिङ्ग-लिङ्गी) संबंधदर्शन समव्याप्ति-विषमव्याप्ति - दो के बीच समान व्याप्ति ही व्याप्ति-दर्शन है। वैशेषिक दर्शन में व्याप्ति-ग्रहण के लिए रहती है, उसे समव्याप्ति रहती है जैसे अभिधेय तथा ज्ञेय के अन्वय तथा व्यतिरेक को महत्त्व दिया गया है। यानी अन्वय बीच समव्याप्ति पाई जाती हैं। जो अभिधेय है वह ज्ञेय है और और व्यतिरेक के माध्यम से ही कोई व्यक्ति व्याप्ति को समझ जो ज्ञेय है वह अभिधेय है। धूम और अग्नि के बीच विषमव्याप्ति सकता है। सांख्य-दर्शन में व्याप्ति-ग्रहण के लिए प्रत्यक्ष को है, क्योंकि धूम के रहने पर अग्नि होती है, परंतु सभी परिस्थितियों आधार माना गया है। अनुकूल तर्क से भी व्याप्ति जानी जा में अग्नि के रहने पर धूम नहीं होता। मीमांसादर्शन के कुमारिल सकती है ऐसा विज्ञानभिक्षु मानते हैं। मीमांसादर्शन के प्रभाकर । विमानभिमानी ने व्याप्ति का ऐसा विभाजन किया है। ने माना है कि जिस प्रमाण से साधन :- संबंध विशेष ग्रहण होता तथोपपत्तिव्याप्ति तथा अन्यथानुपपत्ति - व्याप्ति का यह है उसी प्रमाण से साधन का व्याप्ति संबंध भी जाना जाता है। विभाजन जैन-तार्किकों के द्वारा हुआ है। तथोपपत्ति व्याप्ति धूम और अग्नि के संबंध का प्रत्यक्षीकरण ही दोनों के बीच वहाँ देखी जाती है जहाँ साध्य के रहने पर साधन देखा जाता है। पाई जाने वाली व्याप्ति पर भी प्रकाश डाल देता है। इसे किन्तु साध्य की अनुपस्थिति में ही साधन का पाया जाना असकृद्दर्शन कहते हैं, यही व्याप्तिग्रहण होता है। वेदान्त-दर्शन अन्यथानुपत्ति है। इसके अतिरिक्त जैन-तार्किकों ने एक और में भी व्याप्तिग्रहण के माध्यम के रूप में प्रत्यक्ष को ही स्वीकार वर्गीकरण किया है, जिसके अंतर्गत ये सब नाम आते हैं-- किया गया है। बौद्धदर्शन के धर्मकीर्ति ने यह माना है कि बहिर्व्याप्ति--सपक्ष में जब साध्य और साधन के बीच व्याप्तिग्रहण करने के दो मार्ग हैं--तदुत्पत्ति तथा तादात्म्य। कारण व्याप्ति होती है. उसे बहिर्व्याप्ति कहते हैं। कार्य संबंध को तदुत्पत्ति कहते हैं तथा व्याप्यव्यापक संबंध को तादात्म्य। जैन-दर्शन के प्रमाण-व्यवस्थापक अकलंक ने तर्क सकलव्याप्ति--पक्ष तथा सपक्ष दोनों में ही साध्य और साधन के बीच देखी जाने वाली व्याप्ति को सकल व्याप्ति को ही व्याप्ति-ग्राहक माना है। डा. कोठिया के शब्दों में११३ कहते हैं। dridrowdnironirbnorariadridorariwaroorironiriranid५२ d irowondiriwariwariwaridnirordGirironirandionorarta Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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