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________________ पक्ष के लक्षण में प्रत्यक्षाद्यनिराकृत पद दिया गया है। अपने साध्य के साथ निश्चित त्रैरूप्य वाले हेतु में समबल वाले किसी प्रतिपक्षी हेतु की संभावना ही नहीं की जा सकती, अतः असत्प्रतिपक्षत्व अनावश्यक हो जाता है। ww जैन दर्शन बौद्धचिंतक धर्मकीर्ति, अर्चट आदि ने न्याय तथा मीमांसा दर्शनों में हेतु के छह रूपों के प्रतिपादन की बात कही है५३ षड्लक्षणे हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते...। ये षड्लक्षण इस प्रकार हैं-- (१) पक्षधर्मत्व, (२) सपक्षसत्व, (३) विपक्षासत्व, (४) अबाधितविषयत्व, (५) विपक्षितैकसंख्यत्व तथा (६) ज्ञातत्त्व । किन्तु इन षलक्षणों के विषय में किसी प्रकार की मान्यता, जैसा कि डा. कोठिया की राय है, न्याय तथा मीमांसा दर्शनों में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती । उसी तरह से जैनाचार्य वादिराज ने हेतु के षड्लक्षणों को प्रस्तुत किया है*५ । (१) अन्यथानुपपन्नत्व (२) ज्ञातत्त्व (३) अबाधितविषयत्व, (४) असत्प्रतिपक्षत्व तथा (५,६) पक्षधर्मत्वादि । यहाँ डा. कोठिया ने है कि वादिराज ने यह स्पष्टतः प्रकाशित नहीं किया है कि ये षड्लक्षण किनके द्वारा प्रतिपादित हैं। कहा यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन - वास्तव में जैन तर्क में हेतु के एक ही रूप को माना गया है । वह है अविनाभाव । अविनाभाव = अ + विनाभाव । विनाभाव = किसी के अभाव में किसी का अस्तित्व । अविनाभाव किसी के अभाव में किसी के अस्तित्व का निषेध जैसे अग्नि के अभाव में धूम के अस्तित्व का निषेध । यदि अविनाभाव संबंध है साधन और साध्य के बीच तो अनुमान के लिए अन्य किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं होती है। अविनाभाव के अभाव में त्रैरूप्य भी हेतु नहीं बन सकता और यदि अविनाभाव है तो त्रैरूप्य के न रहने पर भी हेतु का निरूपण हो जाता है। इसके लिए निम्नलिखित उदाहरण दिए जाते हैं Jain Education International - - (१) त्रैरूप्य के अभाव में भी हेतु एक मुहूर्त के बाद शकट नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका का उदय है । कृत्तिका के उदय के बाद शकट का उदय होता है, यह निश्चित है। यद्यपि कृत्तिका के उदय होने तथा शकट के उदय होने में कोई भी त्रैरूप्य नहीं बनता फिर भी यहाँ अविनाभाव संबंध है, जिसके आधार पर अनुमान बनता है। POMEM For Private (२) त्रैरूप्टा होने पर भी हेतु का अभाव (क) गीता का वह पुत्र जो अभी गर्भ में है, श्याम रंग का होगा । (ख) क्योंकि वह गीता का पुत्र है। (ग) जो भी गीता के पुत्र हैं वे श्याम रंग वाले हैं। यहाँ वे तीन रूप हैं जिन्हें बौद्ध विचारकों ने मान्यता दी है, किन्तु गीता का पुत्रत्व जिसे हेतु माना जा रहा है वह अभी गर्भ में है। श्याम होने का आधार गीता का पुत्रत्व ही है। अतः रूप्य होने पर भी अविनाभाव के न रहने से हेतु का निरूपण नहीं हो सकता । विद्यानंद ने बौद्धतर्क में प्रतिपादित अनुमान का खण्डन करते हुए स्पष्ट कहा है५७ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यर्थानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। विद्यानंद से पूर्व सिद्धसेन दिवाकर, पात्रस्वामी, अकलंक आदि जैनाचार्यों के द्वारा इस मत को समर्थन प्राप्त हुआ है, तथा विद्यानंद के परवर्ती जैन-चिंतकों ने भी मात्र अविनाभाव को ही हेतु रूप में स्वीकार किया है। हेतु त्रिरूप या पंचरूप किसी भी अवस्था में हो, किन्तु अविनाभाव के न रहने पर वह हेतु कहलाने के योग्य नहीं होता । हेतु के प्रकार वैशेषिक - इस दर्शन में हेतु के पाँच प्रकारों को मान्यता मिली है*" । कार्य, कारण, संयोगी, समवायी तथा विरोधी । किन्तु अन्य जगहों पर हेतु के ये प्रकार बताए गए हैं" - अभूत, भूतकाभूत - अभूत का और भूत-भूत का । - न्याय - इसके संबंध में डा. शर्मा ने बड़े ही संक्षिप्त और सरल ढंग से विवेचन प्रस्तुत किया है--न्याय परंपरा में महर्षि गौतम ने हेतु के साधर्म्य और वैधर्म्य ये दो भेद प्रदर्शित किए हैं, जिसका समर्थन वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पतिमिश्र एवं जयंत भट्ट आदि सभी दार्शनिकों ने किया है। उदयन ने उद्योतकर प्रणीत अनुमान भेद निरूपण में प्रयुक्त हेतु के अन्वयी, व्यतिरेकी एवं अन्वयव्यतिरेकी इन तीन भेदों को आधार मानकर इसके तीन भेद प्रस्तुत किए हैं -- (१) केवलान्वयी हेतु (२) केवलव्यतिरेकी हेतु तथा (३) अन्वयव्यतिरेकी हेतु । बाद में सभी नैयायिकों ने इनका ही अनुकरण किया है। ४५] 6 ট66 Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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