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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन जिनके कारण इलेक्ट्रॉन लगातार अपनी कक्षीय गति को बनाए अवस्थाओं में इस (जल) यौगिक का संघटक समान रहता है, रखता है। परमाणुओं के द्वारा अणु एवं अणुओं के द्वारा विभिन्न अर्थात् दो भाग हाइड्रोजन एवं एक भाग ऑक्सीजन। यही इसकी प्रकार के तत्त्वों के निर्माण में यही ऋणावेश एवं धनावेश आण्विक संरचना (Molecular Form) है। जल के अणु की यह प्रभावशाली भूमिका निभाते हैं। संरचना अपरिवर्तनशील रहती है चाहे वह बर्फ रूप में रहे जैनाचार्यों ने परमाण्विक संरचना के संबंध में विज्ञान - अथवा जलरूप में अथवा वाष्प रूप में। यही नौव्यता की प्रतिपादित नियमों का ही उल्लेख अपने चिंतन में किया है। स्थिति है। इस अवस्था-परिर्वतन में कई कारक सक्रिय होते हैं, आचारसार में कहा गया है कि अणु पुदगल है, अभेद्य है, निरवयव जैसे तापक्रम आदि। परंतु यहाँ यह इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है, बंधने की शक्ति से युक्त होने के कारण कण है।३२ बंधन की है। महत्त्वपूर्ण यहाँ यह है कि क्या जल की जो विभिन्न अवस्थाएं शक्ति परमाणुओं में पाए जाने वाले स्निग्ध एवं रूक्ष गुणों के हैं, वे वास्तव में जल के विविध पर्याय मात्र हैं अथवा उनसे कारण संभव है।३३ ये स्निग्ध और रूक्ष गुण क्रमशः ऋण एवं नितांत भिन्न तत्त्व। जैनों ने तो इसे एक ही तत्त्व के भिन्न-भिन्न धन आवेश के समानार्थक माने गए हैं। इलेक्ट्रॉन निरंतर गतिशील रूप माना है, अर्थात् इनमें मात्र.पर्यायगत भिन्नता है, द्रव्यगत रहता है और इस कारण विज्ञान का परमाणु भी सदैव गतिशील । सवानिशील नहीं। यद्यपि विज्ञान ने भी जल के उदाहरण में इस मत को ही माना जाता है। क्योंकि इलेक्ट्रॉन परमाण का अभिन्न भाग है। स्वीकार किया है, परंतु क्या वह प्रत्येक अवस्था में यह मानने इसी के अनुरूप जैनों का यह कथन यहाँ संदर्भ के रूप में प्रस्तुत को विवश है? कर रहे हैं-३४ पुद्गल निष्क्रिय नहीं रहते। यद्यपि यह कथन महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के पूर्व यह मान्यता प्रचलित सिद्धों के निष्क्रियता को निर्धारित करने के लिए व्यवहृत हुआ थी कि द्रव्य(Matter) और ऊर्जा (Energy) दो विभिन्न तथ्य हैं। है, परंतु एक सिद्ध निष्क्रिय क्यों होता है, अगर हम इस संदर्भ में यह सिद्धांत भी स्वीकृत था कि पदार्थ को न तो ऊर्जा में बदला चिंतन करें, तो हम पाते हैं कि वह पुद्गल-निरपेक्ष होता है। जा सकता है और न ही ऊर्जा को पदार्थ में। परंतु जैसा कि हमने पुद्गल-की प्रकृति सक्रिय मानी गई है। . पूर्व में देखा कि यह परिवर्तन संभव है। अतः हम यहाँ यह मानने को विवश हैं कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही द्रव्य के दो ऊर्जा : पुदगल-पर्याय अथवा स्वतंत्र तत्त्व रूप अर्थात् पर्याय हैं। यद्याप विज्ञान- जगत् में यह चिंतन एक जैनों ने इस विश्व को षड्द्रव्यों का संघात माना है और इन्हें नवीन एवं क्रांतिकारी मत के रूप में प्रसिद्ध हुआ जो कि अपेक्षाकृत दान कहा है। सत् के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य उमास्वाति बहुत अधिक प्राचीन नहीं है। लेकिन जैन दार्शनिकों ने अपने कहते हैं- जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनों गुणों को धारण परमाणुवादी चिंतन के अनुक्रम में इस सत्य को बहुत पहले ही करता है, वह सत् है। अपनी मूल जाति का त्याग किए बिना नवीन उदघाटित कर दिया था। अतः हम कह सकते हैं कि ऊर्जा पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है। पूर्व पर्याय का त्याग व्यय है। द्रव्य में पुद्गल-पर्याय से इतर एक स्वतंत्र तत्त्व नहीं है। इस संदर्भ में मूल तत्त्वों का स्थापन ज्यों का त्यों बना रहना ध्रौव्य है। पानी हम यहाँ यह जैन-विचार प्रस्तुत करना चाहेंगे- विभिन्न प्रकार अथवा जल की तीन अवस्थाएँ हैं--ठोस (बर्फ), द्रव (जल), की ऊर्जा--गर्मी, प्रकाश, विद्युत आदि पुद्गल के पर्याय हैं।२६ वायु (जलवाष्प)। द्रव जल की प्राकृतिक अवस्था है, लेकिन यह ठोस भी बन जाता है और वाष्प का रूप भी ग्रहण कर लेता है। बर्फ क्वाण्टम गातका एव जनमत जब गल कर पानी बनता है तो जल रूपी पर्याय उत्पन्न होता है। क्वाण्टम-गतिकी परमाणवाद का एक अत्यन्त संवेदनशील इस प्रक्रिया में बर्फ रूपी पर्याय का व्यय होता है। परंतु इन दोनों विचार है। यह परमाणु के अनिवार्य भाग इलेक्ट्रॉन के तरंग अवस्थाओं में पुद्गल द्रव्य अविनष्ट रहता है। यही ध्रौव्यता है। स्वभाव पर आधारित है। इलेक्ट्रॉन में दो प्रकार के गुण पाए जल हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन नामक दो गैसीय तत्त्वों जाते हैं- आंशिक तरंग एवं आंशिक द्रव्य। तरंग से हमारा के मिलने से बनता है। पानी, बर्फ तथा भाप इन तीनों की बनानी तापय इलक्ट्रान तात्पर्य इलेक्ट्रॉन के कम्पायमान स्वरूप से है। यह कम्पायमान तरंग .. (Vibrating waves) है। द्रव्यमान रूप (Particle borm) आंशिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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