SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह स्वीकार करती नाम 'वागरण' (व्याकरण) ही था। ऋषिभाषित में इसका इसी नाम हैं कि प्रश्नव्याकरणसूत्र (पण्हवागरण) जैन अंग-आगम-साहित्य का से उल्लेख है। प्राचीनकाल में तात्त्विक व्याख्या को व्याकरण कहा दसवाँ अंग-ग्रन्थ है, किन्तु दिगम्बर- परम्परा के अनुसार अंग-आगम जाता था। साहित्य का विच्छेद (लुप्त) हो जाने के कारण वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर-परम्परा अंग-साहित्य का विच्छेद नहीं मानती प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु है। अत: उसके उपलब्ध आगमों में प्रश्नव्याकरण नामक ग्रन्थ आज प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में अन्य ग्रन्थों में जो भी पाया जाता है। किन्तु समस्या यह है कि क्या श्वेताम्बर- परम्परा निर्देश है- उससे वर्तमान प्रश्नव्याकरण निश्चय ही भिन्न है। यह परिवर्तन के वर्तमान प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु वही है जिसका निर्देश अन्य किस रूप में हुआ है, यही विचारणीय है। यदि हम ग्रन्थ के कालक्रम श्वेताम्बर प्राचीन आगम-ग्रन्थों में है अथवा यह परिवर्तित हो चुकी को ध्यान में रखते हुए प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में है। प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु सम्बन्धी प्राचीन निर्देश श्वेताम्बर-परम्परा उपलब्ध विवरणों को देखें, तो हमें उसकी विषयवस्तु में हुए परिवर्तनों के स्थानांग (ठाणंग), समवायांग, अनुयोगद्वार एवं नन्दीसूत्र में और की स्पष्ट सूचना उसमें मिल जाती है। दिगम्बर-परम्परा के राजवार्तिक, धवला एवं जयधवला नामक टीका (अ) स्थानांग- प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध में ग्रन्थों में उपलब्ध है। इनमें स्थानांग और समवायांग लगभग ३री-४थी प्राचीनतम उल्लेख स्थानांगसूत्र में मिलता है। इसमें प्रश्नव्याकरण की शती एवं नन्दी लगभग ५वीं-६ठी शताब्दी, राजवार्तिक ८वीं शताब्दी गणना दस दशाओं में की गई है तथा उसके निम्न दस अध्ययन बताये तथा धवला एवं जयधवला १०वीं शताब्दी के ग्रन्थ स्वीकार किये गये हैंगये हैं। १. उपमा, २. संख्या, ३. ऋषिभाषित, ४. आचार्यभाषित, ५. महावीरभाषित, ६. क्षोभिकप्रश्न, ७. कोमलप्रश्न, ८. आदर्शप्रश्न प्रश्नव्याकरण' नाम क्यों? (आद्रकप्रश्न), ९. अंगुष्ठप्रश्न, १०. बाहुप्रश्न । इससे फलित होता _ 'प्रश्नव्याकरण' इस नाम को लेकर प्राचीन टीकाकारों एवं विद्वानों है कि सर्वप्रथम यह दस अपात्रों का ग्रन्थ था। दस अध्यायों के में यह धारणा बन गयी थी कि जिस ग्रन्थ में प्रश्नों के समाधान किये ग्रन्थ दसा (दशा) कहे जाते थे। गये हों, वह प्रश्नव्याकरण है। मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्राचीन (ब) समवायांग- स्थान . के पश्चात् प्रश्नव्याकरणसूत्र की संस्करण की विषयवस्तु प्रश्नोत्तरशैली में नहीं थी और न वह प्रश्न-विद्या विषयवस्तु का अधिक विस्तृत विवेचन करने वाला आगम समवायांग अर्थात् निमित्तशास्त्र से ही सम्बन्धित थी। गुरु-शिष्य सम्वाद की प्रश्नोत्तर- है। समवायांग में उसकी विषयवस्तु का निर्देश करते हुए कहा गया शैली में आगम-ग्रन्थ की रचना एक परवर्ती घटना है- भगवती या है कि प्रश्नव्याकरण सूत्र में १०८ प्रश्नों, १०८ अप्रश्नों और १०८ व्याख्या-प्रज्ञप्ति इसका प्रथम उदाहरण है। यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र प्रश्नाप्रश्नों की विद्याओं के अतिशयों (चमत्कारों) का तथा नागों-सुपर्णों में यह माना गया है कि प्रश्नव्याकरण में १०८ पूछे गये, १०८ नहीं के साथ दिव्य संवादों का विवेचन है। यह प्रश्नव्याकरण दशा पूछे गये और १०८ अंशत: पूछे गये और अंशत: नहीं पूछे गये स्वसमय-परसमय के प्रज्ञापक एवं विविध अर्थों वाली भाषा के प्रवक्ता प्रश्नों के उत्तर हैं। किन्तु यह अवधारणा काल्पनिक ही लगती है। प्रत्येकबुद्धों के द्वारा भाषित अतिशय गुणों एवं उपशमभाव के धारक प्रश्नव्याकरण की प्राचीनतम विषयवस्तु प्रश्नोत्तर रूप में थी या उसमें तथा ज्ञान के आकर आचार्यों के द्वारा विस्तार से भाषित और जगत् प्रश्नों का उत्तर देने वाली विद्याओं का समावेश था- समवायांग और के हित के लिए वीर महर्षि के द्वारा विशेष विस्तार से भाषित है। नन्दीसूत्र के उल्लेखों के अतिरिक्त आज इसका कोई प्रबल प्रमाण उपलब्ध यह आदर्श (अद्दाग), अंगुष्ठ, बाहु, असि, मणि, क्षौम (वस्त्र) एवं नहीं है। प्राचीनकाल में ग्रन्थों को प्रश्नों के रूप में विभाजित करने आदित्य (के आश्रय से) भाषित है। इसमें महाप्रश्न विद्या, मनप्रश्नविद्या, की परम्परा थी। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण आपस्तम्बीय धर्मसूत्र देवप्रयोग आदि का उल्लेख है। इसमें सब प्राणियों के प्रधान गुणों है। जिसकी विषयवस्तु को दो प्रश्नों में विभक्त किया है। इसके प्रथम के प्रकाशक, दुर्गुणों को अल्प करने वाले, मनुष्यों की मति को विस्मित प्रश्न में ११ पटल और द्वितीय प्रश्न में ११ पटल हैं। यह सम्पूर्ण करने वाले, अतिशयमय कालज्ञ एवं शमदम से युक्त उत्तम तीर्थंकरों ग्रन्थ प्रश्नोत्तर रूप में भी नहीं है। इसी प्रकार बौधायन धर्मसूत्र की के प्रवचन में स्थित करने वाले, दुरभिगम, दुरवगाह, सभी सर्वज्ञों विषयवस्तु भी प्रश्नों में विभक्त है। अत: प्रश्नोत्तर शैली में होने के के द्वारा सम्मत सभी अज्ञजनों को बोध कराने वाले प्रत्यक्ष प्रतीतिकारक, कारण या प्रश्नविद्या से सम्बन्धित होने के कारण इसे प्रश्नव्याकरण विविधगुणों से और महान् अर्थों से युक्त जिनवर प्रणीत प्रश्न (वचन) नाम दिया गया था, यह मानना उचित नहीं होगा। वैसे इसका प्राचीन कहे गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy