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________________ से यह भी सिद्ध होता है कि बाहिय या बाहिक पूर्व में स्वतन्त्र रूप से साधना करता था। बाद में उसने बुद्ध से दीक्षा ग्रहण कर अर्हत्-पद प्राप्त किया था। चूंकि बाहिक बुद्ध का समकालीन था, अतः बाहिक से थोड़े पूर्ववर्ती रामपुत्त थे। पुनः रामगुत्त, बाहुक, देवल, द्वैपायन, पाराशर आदि जैन- परम्परा के ऋषि नहीं रहे हैं, यद्यपि नमि के वैराग्य- प्रसङ्ग का उल्लेख उत्तराध्ययन में है। इसिभासियाई में जिनके विचारों का सङ्कलन हुआ है, उनमें पार्श्व आदि के एक दो अपवादों को छोड़कर शेष सभी ऋषि निर्ग्रन्थ-परम्परा (जैन-धर्म) से सम्बन्धित नहीं हैं। इसिभासियाइं और सूत्रकृताङ्ग दोनों से ही रामगुत्त ( रामपुत्त) का अजैन होना ही सिद्ध होता है, न कि जैन। जबकि समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त स्पष्ट रूप से एक जैन धर्मावलम्बी नरेश है। सम्भवतः डॉ० भागचन्द्र अपने पक्ष की सिद्धि इस आधार पर करना चाहें कि सूत्रकृतान की मूल गाथाओं में "पुत" शब्द न होकर "गुप्त" शब्द है और सूत्रकृतान के टीकाकार शीला ने भी उसे रामगुप्त ही कहा है, रामपुक्त नहीं, साथ ही उसे राजर्षि भी कहा गया है, अतः उसे राजा होना चाहिए। किन्तु हमारी दृष्टि से ये तर्क बहुत सवल नहीं है। प्रथम तो यह कि राजर्षि विशेषण नमि एवं रामगुप्त (रामपुर) दोनों के सम्बन्ध में लागू हो सकता है और यह भी सम्भव है कि संदर्भ १. २. ३. ४. ५. ६. यतीन्द्रसूरि स्मारक राज्य जैन आगम एवं साहित्य आहंसु महापुरिसा पुव्विं तत्ततवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना तत्थ मंदो विसीयति । । अभुंजिया नमी विदे य भुंजिया बाहुए उदगं भोच्या तहा नारायणे रिसी आसिले देविले चैव दीवायण महारिसी पारासरे दगं भोच्चा बीयाणि हरियाणि य । सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/१-३। Some Ethical Aspects of Mahayana Buddhism as depicted in the Sūtrakrtänga, Page 2 (यह लेख All India Seminar on Early Buddhism and Mahayana--Deptt. of Pali and Buddhist Studies, BHU. Nov. 10 13, 1984 में पढ़ा गया था। ) भगवतोऽर्हतो चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महाराजाधिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् । जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास भाग- १. पू. ५१-५२ तथा सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग-२२, प्रस्तावना, पृ० ३१ । -- सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/२-३ । एते पुव्वं महापुरिसा अहिता इह सम्मता । भोच्चा बीओदगं सिद्धा इति मेयमणुस्सुअ ।। Jain Education International - वही, १/३/४/४1 ७. रामपुत्तेण अरहता इसिणं बुझतं । इसिभासियाई, २३। नमि के समान रामपुत्त भी कोई राजा रहा हो, जिसने बाद में श्रमणदीक्षा अङ्गीकार कर ली है। पुनः हम यदि चूर्ण की ओर जाते हैं, जो शाला के विवरण की पूर्ववर्ती है, उसमें स्पष्ट रूप से 'रामाउते ऐसा पाठ है, न कि 'रामगते' इस आधार पर भी रामपुत्त (रामपुत्र) की अवधारणा सुसङ्गत बैठती है। इसिभासियाई की भूमिका में भी सूत्रकृताङ्ग के टीकाकार शीलाङ्क ने जो रामगुप्त पाठ दिया है, उसे असङ्गत बताते हुए शुब्रिङ्ग ने 'रामपुत्त' इस पाठ का ही समर्थन किया है। १३ यद्यपि स्थानाङ्गसूत्र के अनुसार अन्तकृद्ददशा के तीसरे अध्ययन का नाम 'रामगुत्ते' है। किन्तु प्रथम तो वर्तमान अन्तकृद्दशाङ्ग में उपलब्ध अध्ययन इससे भिन्न है, दूसरे यह भी सम्भव है कि किसी समय यह अध्ययन रहा होगा और उसमे रामपुत्त से सम्बन्धित विवरण रहा होगा यहाँ भी टीकाकार की भ्रान्तिवश ही 'पुत' के स्थान पर गुप्त हो गया है। टीकाकारों ने मूल पाठों में ऐसे परिवर्तन किये हैं। इन सब आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि सूत्रकृताङ्ग में उल्लिखित रामपुत (रामगुप्त) समुद्रगुप्त का ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त न होकर पालि त्रिपिटक साहित्य में एवं इसिमासियाई में उल्लिखित रामपुत्त ही है, जिससे बुद्ध ने ध्यान प्रक्रिया सीखी थी। ८. ९. ये समणे रामपुते अभिपन्ना- अङ्गुत्तरनिकाय, ४/१९/७ मज्झिमनिकाय, २/४/५ संयुत्तनिकाय, ३४/२/५/१०/ १०. अथ खो भगवतो एतदहोसि "कस्स नु खो अहं पठा देसैय्यं? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती' ति? अथ खां भगवतो एतदहोसि - "अयं खो उद्दको रामपुत्तो पण्डितो ब्यो मेधावी दीघरत अप्परजक्खजातिको यन्त्रनाहं उदकस्स रामपु पठमं धम्मं देसेय्यं, सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सतीति । अप खो अन्तरहिता देवता भगवतो आरोचेसि “अभियोगकालं भन्ते, उद्दको रामपुत्तोति । भगवतो पि खो जणं उदपादि "अभिदोसकालंकतो उदको रामपुो ति ११. मज्झिमनिकाय, २/४/५, २/५/१०/ सूत्रकृताङ्ग, १/३/४/२। १२. १३. Isibhasiyair ( A Jaina Text of Early Period), Introduction, [१९१] ---- p. 4 (L.D. Institute of Indology, Ahmedabad). १४. अंतगड़दसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा नमि मातंगे सोमिले, रामगुले सुदंसणे चेव । जमाली य भगाली य, किंकिमे पल्लए इ य ।। १ ।। फाले अंबइपुते य, एमेए दस आहिया For Private & Personal Use Only महावग्ग १ / ६ /१०/२/ — स्थानाङ्गसूत्र, स्थान १० / ७५५ । Gomorra www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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