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________________ प्रथम के चतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य युग में थे। परम्परागत मान्यता के अनुसार आर्यरक्षित के युग में भी आचारांग एवं सूत्रकृतांग उतने ही विशाल थे, जितने भद्रबाहु के काल में थे। ऐसी स्थिति में चाहे एक ही अनुयोग का अनुसरण करके नियुक्तियाँ लिखी गयी हों, उनकी विषयवस्तु तो विशाल होनी चाहिए थी। जबकि जो भी नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं वे सभी माथुरीवाचना द्वारा या वलभी वाचनाद्वारा निर्धारित पाठ वाले आगमों का ही अनुसरण कर रही हैं। यदि यह कहा जाय कि अनुयोगों का पृथक्करण करते समय आर्यरक्षित ने नियुक्तियों को भी पुनः व्यवस्थित किया और उनमें अनेक गाथाएँ प्रक्षिप्त भी कीं, तो प्रश्न होता है कि फिर उनमें गोष्ठामाहिल और बोटिक मत की उत्पत्ति सम्बन्धी विवरण कैसे आये, क्योंकि इन दोनों की उत्पत्ति आर्यरक्षित के स्वर्गवास के पश्चात् ही हुई है। यद्यपि इस सन्दर्भ में मेरा मुनिश्री से मतभेद है। मेरे अध्ययन की दृष्टि से सप्त निह्नवों के उल्लेख वाली गाथाएँ तो मूल गाथाएँ हैं, किन्तु उनमें बोटिक मत के उत्पत्ति-स्थल रथवीरपुर एवं उत्पत्तिकाल वीर नि.सं. ६०९ का उल्लेख करने वाली गाथाएँ बाद में प्रक्षिप्त हैं। वे नियुक्ति की गाथाएँ न होकर भाष्य की हैं, क्योंकि जहाँ निह्नवों एवं उनके मतों का उल्लेख है वहाँ सर्वत्र सात का ही नाम आया है जबकि उनके उत्पत्तिस्थल एवं काल को सूचित करने वाली इन दो गाथाओं में यह संख्या आठ हो गयी।५१ आश्चर्य यह है कि आवश्यक नियुक्ति में बोटिकों की उत्पत्ति की कहीं कोई चर्चा नहीं है और यदि बोटिकमत के प्रस्तोता एवं उनके मन्तव्य का उल्लेख मूल आवश्यक नियुक्ति में नहीं है, तो फिर उनके उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्ति काल का उल्लेख नियुक्ति में के लकता है? वस्तुतः भाष्य की अनेक गाथाएँ नियुक्तियों में मिल गई है। अतः ये नगर एवं काल सूचक गाथाएँ भाष्य की होनी चाहिये । यद्यपि उत्तराध्ययननियुक्ति के तृतीय अध्ययन के अन्त में इन्हीं सप्त निह्नवों का उल्लेख होने के बाद अन्त में एक गाथा में शिवभूति का रथवीरपुर नगर के दीपक उद्यान में आर्यकृष्ण से विवाद होने का उल्लेख है । ५२ किन्तु न तो इसमें विवाद के स्वरूप की चर्चा है और न कोई अन्य बात, जबकि उसके पूर्व प्रत्येक निह्नव के मन्तव्य का आवश्यकनियुक्ति की अपेक्षा विस्तृत विवरण दिया गया है। अतः मेरी दृष्टि में यह गाथा भी प्रक्षिप्त है। यह गाया वैसी ही है जैसी कि आवश्यकमूलभाष्य में पायी जाती है। पुनः वहाँ यह गाया बहुत अधिक प्रासंगिक भी नहीं कही जा सकती मुझे स्पष्ट रूप से लगता है कि उत्तराध्ययननियुक्ति में भी निवों की चर्चा के बाद यह गाथा प्रक्षिप्त की गयी है। यह मानना भी उचित नहीं लगता कि चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु के काल में रचित नियुक्तियों को सर्वप्रथम आर्यरक्षित के काल में व्यवस्थित किया गया और पुनः उन्हें परवर्ती आचार्यों ने अपने युग की आगमिक वाचना के अनुसार व्यवस्थित किया। आश्चर्य तब और अधिक बढ़ जाता है कि इस सब परिवर्तन के विरुद्ध भी कोई स्वर उभरने की कहीं कोई सूचना नहीं है। वास्तविकता यह है कि आगमों में जब भी कुछ परिवर्तन करने का प्रयत्न किया गया तो उसके विरुद्ध स्वर उभरे है और उन्हें उल्लिखित भी किया गया है। Jain Education International उत्तराध्ययननियुक्ति में उसके 'अकाममरणीय' नामक अध्ययन की नियुक्ति में निम्न गाथा प्राप्त होती है " सव्वे ए ए दारा मरणविभत्तीए वण्णिआ कमसो । सगलणिउणे पयत्थे जिण चउदस पुष्वि भासंति" ।। २३२ ।। (ज्ञातव्य है कि मुनिपुण्यविजय जी ने इसे गाया २३३ लिखा है किन्तु निर्युक्तिसंग्रह में इस गाथा का क्रम २३२ ही है ।) , इस गाथा में कहा गया है कि "मरणविभक्ति में इन सभी द्वारों का अनुक्रम से वर्णन किया गया है, पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से तो जिन अथवा चतुर्दश पूर्वधर ही जान सकते हैं।" यदि नियुक्तिकार चतुर्दशपूर्वधर होते तो वे इस प्रकार नहीं लिखते। शान्त्याचार्य ने स्वयं इसे दो आधारों पर व्याख्यायित किया। प्रथम चतुर्दश पूर्वधरों में आपस में अर्थज्ञान की अपेक्षा से कमी अधिकता होती है, इसी दृष्टि से यह कहा गया हो कि पदार्थों का सम्पूर्ण स्वरूप तो चतुर्दशपूर्वी ही बता सकते हैं अथवा द्वार गाथा से लेकर आगे की ये सभी गाथाएँ भाष्यगाथाएँ हों । ५३ यद्यपि मुनि पुण्यविजय जी इन्हें भाष्य-गाथाएँ स्वीकार नहीं करते हैं। चाहे ये गाथाएँ भाष्यगाथा हों या न हों किन्तु मेरी दृष्टि में आत्याचार्य ने नियुक्तियों में भाष्य-गाथा मिली होने की जो कल्पना की है, वह पूर्णतया असंगत नहीं है। पुन: जैसा पूर्व में सूचित किया जा चुका है, सूत्रकृतांग के पुण्डरीक अध्ययन की नियुक्ति में पुण्डरीक शब्द की नियुक्ति करते समय उसके द्रव्य - निक्षेप से एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम - गोत्र ऐसे तीन आदेशों का नियुक्तिकार ने स्वयं ही संग्रह किया है । ५४ बृहत्कल्पसूत्रभाष्य (प्रथमविभाग, पृ. ४४-४५) में ये तीनों आदेश आर्यसुहस्ति, आर्य मंगु एवं आर्यसमुद्र की मान्यताओं के रूप में उल्लिखित हैं। इतना तो निश्चित है कि ये तीनों आचार्य पूर्वर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु (प्रथम) से परवर्ती हैं और उनके मतों का संग्रह पूर्ववर भद्रबाहु द्वारा सम्भव नहीं है। ५५ दशाश्रुतस्कंध की नियुक्ति के प्रारम्भ में निम्न गाथा दी गयी है"वंदामिमहवा पाईणं चरिमसवलसुयनाणिं । सुत्तस्स कारमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे।।" इसमें सफलश्रुतज्ञानी प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु का न केवल वंदन किया गया है, अपितु उन्हें दशाश्रुतस्कंध कल्प एवं व्यवहार का रचयिता भी कहा है, यदि नियुक्तियों के लेखक पूर्वधर श्रुतकेवली भद्रबाहु होते तो, वे स्वयं ही अपने को कैसे नमस्कार करते? इस गाथा को हम प्रक्षिप्त या भाष्य गाथा भी नहीं कह सकते, क्योंकि प्रथम तो यह अन्य की प्रारम्भिक मंगल गाथा है, दूसरे चूर्णिकार ने स्वयं इसको नियुक्तिगाथा के रूप में मान्य किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नियुक्तिकार चतुर्दश पूर्वघर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु नहीं हो सकते। इस समस्त चर्चा के अन्त में मुनि जी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परम्परागत दृष्टि से दशाश्रुतस्कंध, कल्पसूत्र व्यवहारसूत्र एवं निशीध ये चार छेदसूत्र, आवश्यक आदि दस नियुक्तियों, उवसग्गहर एवं भद्रबाहु सहिता ये सभी चतुर्दशपूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु स्वामी की कृति माने जाते हैं, किन्तु इनमें से ४ छेद सूत्रों के रचयिता तो १७३] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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