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________________ -चतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श' सागर जैन विद्याभारती क्षेत्रीय बोलियों का मिश्रण होता गया। उदाहरण के रूप में जब भाग-१ पृष्ठ २३९-२४३ में की है। प्रस्तुत प्रसंग में उसका निम्न पूर्व का भिक्षु पश्चिमी प्रेदशों में अधिक विहार करता है तो अंश दृश्य है-- उसकी भाषा में पूर्व एवं पश्चिम दोनों की ही बोलियों का प्रभाव जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्धमागधी तथा आ जाता है, फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम के भाषिक शौरसेनी ग्रंथों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों हआ? इस स्वरूप की एकरूपता समाप्त हो गई। प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता है। वस्तुतः इन ४. सामान्यतया बुद्ध के वचन बुद्ध के निर्वाण के २००ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई एक ही कारण नहीं है, ३०० वर्ष के अंदर ही अंदर लिखित रूप में आ गए। अतः उनके अपितु अनेक कारण हैं, जिन पर हम क्रमशः विचार करेंगे - भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के बाद बहुत अधिक १. भारत में वैदिक परंपरा में वेद-वचनों को मंत्र रूप में परिवर्तन नहीं आया, तथापि उनकी उच्चारण-शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही है। आज भी लंका, बर्मा, थाईलैंड आदि देशों मानकर उनके स्वर व्यंजन की उच्चारण योजना को अपरिवर्तनीय । बनाए रखने पर अधिक बल दिया गया, उनके लिए शब्द और के भिक्षुओं का त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण रही और अर्थ गौण रहा। यही कारण है कि विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक सुदीर्घकाल आज भी अनेक वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेदमंत्रों की उच्चारण तक लिखित रूप में नहीं आ सका, वह गुरुशिष्य परंपरा से शैली, लय आदि के प्रति तो अत्यंत सतर्क रहते हैं, किन्तु वे मौखिक ही चलता रहा, फलतः देशकालगत उच्चारण-भेद से उनके अर्थों को नहीं जानते हैं। यही कारण है कि वेद शब्दरूप उनको लिपिबद्ध करते समय उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन में यथावत् बने रहे। इसके विपरीत जैन परंपरा में यह माना गया होता गया। मात्र यही नहीं, लिखित प्रतिलिपियों के पाठ भी कि तीर्थंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं। उनके वचनों को शब्दरूप प्रतिलिपिकारों की असावधानी या क्षेत्रीय बोली से प्रभावित तो गणधर आदि के द्वारा दिया जाता है। अत: जैनाचार्यों के लिए हुए। श्वेताम्बर आगमों की प्रतिलिपियाँ मुख्यतः गुजरात एवं अर्थ या कथन का तात्पर्य ही प्रमुख था, उन्होंने कभी भी शब्दों राजस्थान में हुई, अतः उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव आ गया। पर बल नहीं दिया। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए, यही जैन आचार्यों का प्रमुख ५. भारत में कागज का प्रचलन न होने से भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर ग्रन्थों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन लक्ष्य रहा। शब्दरूपों की उनकी इस उपेक्षा के फलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते गए। इसी क्रम में ईसा की -मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था। लगभग ई. सन् की ५वीं शती तक इस कार्य को पाप-प्रवृत्ति चतुर्थ शती में अर्धमागधी आगमों के शौरसेनी प्रभावित और । माना जाता था तथा इसके लिए दण्ड की व्यवस्था भी थी। महाराष्ट्री प्रभावित संस्करण अस्तित्व में आए। फलतः महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन साहित्य २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए उनका श्रत परंपरा पर ही आधारित रहा। श्रुतपरम्परा पर आधारित होने दूसरा कारण यह था कि जैन-भिक्षु - संघ में विभिन्न प्रदेशों के से आगमों के भाषिक स्वरूप में वैविध्य आ गया। भिक्षु गण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक बोलियों से ६. आगमिक एवं आगम तुल्य साहित्य में आज भाषिक प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण-शैली में भी स्वाभाविक रूपों का जो वैविध्य देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों भिन्नता रहती थी, फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम साहित्य (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार के भाषिक स्वरूप में भिन्नताएँ आ गईं। जिस क्षेत्र का होता था, उस पर भी उस क्षेत्र की बोली, भाषा का ३. जैन भिक्षु सामान्यतया भ्रमणशील होते हैं, उनकी प्रभाव रहता था और वह असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं पर भी अन्य के शब्दरूपों को लिख देता था। उदाहरण के रूप में चाहे प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव भी पड़ता ही था, फलतः आगमों मूलपाठ में गच्छति लिखा हो लेकिन यदि उस क्षेत्र में प्रचलन में के भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन हुआ और उनमें तत् तत् गच्छइ का व्यवहार है तो प्रतिलिपिकार गच्छइ रूप ही लिख देगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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