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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य शिखरिणी२२ नहीं है। संभवत: साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ के इस रसै रुद्रैश्छिन्ना यमनसभलागः शिखरिणी मत के अनुरूप कि कोई सर्ग विविध वृत्तों से युक्त होना चाहिए अर्थात् प्रधान छन्द से पृथक् छन्द में निबद्ध होना चाहिए।२६ अर्थात् जिसमें यगण, मगण, नगण, सगण, भगण, अंत में सोमश्वर देव ने इसमें अनुष्टप् का प्रयोग नहीं किया है। इस सर्ग में क्रमशः एक लघु और एक गुरु हो तो उस छन्द को शिखरिणी प्रथम ५५ श्लोक उपजाति में और अंतिम ५वाँ श्लोक प्रहर्षिणी में कहते हैं। निबद्ध है। प्रहर्षिणी का लक्षण२७ एवं उदाहरण२८ इस प्रकार हैउदाहरण२३ - म्नौ नौगस्त्रिदशयतिः प्रहर्षिणीयम्॥ पुरस्कृत्य न्यायं खलजनमनादृत्य सहजा नरीन्निर्जित्य श्रीपतिचरितमाश्रित्य च यदि। प्रहर्षिणी के प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, नगण, जगण, . समुद्धर्तुं धात्रीमभिलषसि तत् सैष शिरसा, रगण और एक गुरु होता है। धृतो देवादेशः स्फुटमपरथा स्वस्ति भवते ।।७७/३।। आशायामशिशिरधाम्नि पश्चिमायाचतुर्थ सर्ग 'दूतसभागम' में ९१ श्लोक हैं, जिनमें से प्रथम मायाते सुकृतवतामपश्चिमोऽसौ। ४१ श्लोक अनुष्टप में ४७ श्लोक (४२ से ८८) वसन्तमालिनी तान् कृत्वा धनकनकैः कवीन् कृतार्था - या उपपूर्वा में, श्लोक संख्या ८९ वसन्ततिलका में, ९० शार्दूल नावासं स्वमभिचचाल वस्तुपाल:।।56/6॥ विक्रीडित में और ९१ पुष्पिताग्रा में निबद्ध है। चन्द्रोदयवर्णन नामक सप्तम सर्ग में ८३ श्लोक है, जिसमें प्रसरत्यथ मत्सरप्रबन्धे, द्रुतमेकेन रणोल्वणं कृपाण। प्रारंभ के ५३ श्लोक अनुष्टुप् में है। ५४ से ५६ और ५९ से ७२ अपरेण सुतं करेण वीरं, सहसा संयति यान्तमेष दधे।।५४/४ उपजाति में, ५७, ५८ इंद्रवज्रा में तथा ७६, ८० एवं ८१ पुष्पिताग्रा में जगति ज्वलिताखिलप्रदेशः, प्रचुरीभूतमलिम्लुचप्रचारः। रचित हैं। ८२, ८३ शार्दूलविक्रीडित छन्द में,७३ वसन्ततिलक में, ७८ स परस्परविग्रहो ग्रहणमिव तेषामभवन्नरेश्वराणाम्।।६१/४।। प्रहर्षिणी में तथा ७४ और ७९ द्रुतविलम्बित छन्द में रचित हैं। ___ 'युद्धवर्णन' नामक पाँचवें सर्ग में ६८ श्लोक हैं। इनमें एक इस ग्रन्थ में द्रुतविलम्बित छन्द का प्रयोग सातवें सर्ग में से ६२ श्लोक तक अनुष्टुप् में, ६३ से ६७ श्लोक तक अनुष्टुप् म, ६३ स ६७ श्लाक तक ही पहल ही पहली बार हुआ है, इसका लक्षण एवं उदाहरण इस प्रकार हैवसन्ततिलका में तथा अंतिम ६वाँश्लोक हरिणी छन्द में रचित है। इस सर्ग में, प्रयुक्त नए छन्द हरिणी का लक्षण एवं कीर्तिकौमुदी द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ का उक्त श्लोक निम्नलिखित है-- हरिणी२४ - अर्थात् जिसके प्रत्येक चरण में क्रमश: नगण, भगण, पुनः रसयुगहयैन्सौ नौ स्लौ गो यदा हरिणी तदा। भगण और अंत में एक रगण हो तो उसको द्रतविलम्बित कहते हैं। उदाहरण.. अर्थात् जिसमें नगण, सगण, मगण, रगण, सगण एक लघु और गुरु हो तो उस छन्द का नाम हरिणी होता है। उदाहरण२५ प्रतिनृपतिभिर्भगनोत्साहैर्निमग्नमिव क्वचित् स च नरपतिर्वीरस्तीरं जगाम मृधाम्बुधेः दिशि दिशि यश:स्तोमान् सोमान्वयी समचारय च्चतुरकुरलीचाणक्योऽयं प्रियंकरणैर्गुणैः।।६८/५ निगदितुं विधिनापि न शक्यते, सुभटता कुचयोः कुटिलभूवाम् सुरतसंयति यौ प्रियपीडितावपि नतिं नगतौ च्युतकंचुकौ ।।७९/७।। आठवें परमार्थविचार नामक सर्ग में ७१ श्लोक हैं। इस सर्ग के आरंभिक ५६ श्लोक अनुष्टप छन्द में हैं। आठवें सर्ग के शेष श्लोकों में से बारह (५७-६८) पुष्पिताग्रा में श्लोक ६९ वाँ शालिनी में.७०वाँ प्रहर्षिणी में और अंतिम ७१वाँ शार्दलविक्रीडित छन्द में रचित है। परप्रमोद-वर्णन, शीर्षक छठे सर्ग में ५६ श्लोक हैं। इस सर्ग में काव्य के प्रधान छन्द अनष्टप में कोई भी श्लोक निबद्ध indiarrianiadiwasidiardiarianiaasariwarta १००drandirmiretarsansartandardinsantarvarsanaras Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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