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________________ भाष्य और भाष्यकार डॉ. मोहनलाल मेहता.... आगमों की प्राचीनतम पद्यात्मक टीकाएँ नियुक्तियों में ६४९० गाथाएँ हैं। पंचकल्प-महाभाष्य की गाथासंख्या २५७४ के रूप में प्रसिद्ध हैं। नियुक्तियों की व्याख्यान-शैली बहुत गूढ़ है। व्यवहारभाष्य में ४६२९ गाथाएँ हैं। निशीथभाष्य में लगभग एवं संकोचशील है। किसी भी विषय का जितने विस्तार से ६५०० गाथाएँ हैं। जीतकल्पभाष्य की गाथासंख्या २६०६ है। विचार होना चाहिए, उसका उसमें अभाव है। इसका कारण यही ओघनियुक्ति पर दो भाष्य हैं जिनमें से एक की गाथासंख्या ३२२ है कि उनका मुख्य उद्देश्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या तथा दूसरे की २५१७ है। पिण्डनियुक्ति-भाष्य में ४६ गाथाएँ हैं। करना है, न कि किसी विषय का विस्तृत विवेचन। यही कारण थाष्यकार है कि नियुक्तियों की अनेक बातें बिना आगे की व्याख्याओं की सहायता के सरलता से समझ में नहीं आती। नियुक्तियों के उपलब्ध भाष्यों की प्रतियों के आधार पर केवल दो गूढार्थ को प्रकट रूप में प्रस्तुत करने के लिए आगे के आचार्यों भाष्यकारों के नाम का पता लगता है। वे हैं आचार्य जिनभद्र ने उन पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखना आवश्यक समझा। इस और संघदासगणि। आचार्य जिनभद्र ने दो भाष्य लिखे - विशेषावश्यकभाष्य और जीतकल्पभाष्य। संघदासगणि के भी पद्यात्मक व्याख्याएँ लिखी गईं वे भाष्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। दो भाष्य हैं - बृहत्कल्प-लघुभाष्य और पंचकल्प-महाभाष्य। नियुक्तियों की भाँति भाष्य भी प्राकृत में ही हैं। आचार्य जिनभद्र भाष्य आचार्य जिनभद्र' का अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के कारण जिस प्रकार प्रत्येक आगम ग्रन्थ पर निर्यक्ति न लिखी जैन-परम्परा के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। इतना होते हुए जा सकी उसी प्रकार प्रत्येक निर्यक्ति पर भाष्य भी नहीं लिखा भी आश्चर्य इस बात का है कि उनके जीवन की घटनाओं के गया। निम्नलिखित आगम ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गए हैं - १. विषय में जैन-ग्रन्थों में कोई सामग्री उपलब्ध नहीं है। उनके आवश्यक २. दशवैकालिक ३. उत्तराध्ययन ४. बृहत्कल्प ५. जन्म और शिष्यत्व के विषय में परस्पर विरोधी उल्लेख मिलते पंचकल्प ६. व्यवहार ७. निशीथ ८.जीतकल्प ९. ओघनिर्यक्ति हैं। ये उल्लेख बहुत प्राचीन नहीं है अपितु १५वीं या १६वीं १०. पिण्डनियुक्ति। शताब्दी की पट्टावलियों में हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि आचार्य जिनभद्र को पट्टपरंपरा में सम्यक् स्थान नहीं मिला। ___ आवश्यक सूत्र पर तीन भाष्य लिखे गए हैं - १. मूलभाष्य उनके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों तथा उनके आधार पर लिखे गए विवरणों २. भाष्य और ३. विशेषावश्यकभाष्य। प्रथम दो भाष्य बहुत को देखकर ही बाद के आचार्यों ने उन्हें उचित महत्त्व दिया तथा ही संक्षिप्त रूप में लिखे गए और उनकी अनेक गाथाएँ आचार्य-परम्परा में सम्मिलित करने का प्रयास किया। चूंकि विशेषावश्यकभाष्य में सम्मिलित कर ली गईं। इस प्रकार विशेषावश्यकभाष्य को तीनों भाष्यों का प्रतिनिधि माना जा इस प्रयास में वास्तविकता की मात्रा अधिक न थी अत: यह सकता है, जो आज भी विद्यमान है। यह भाष्य पूरे आवश्यकसूत्र स्वाभाविक है कि विभिन्न आचार्यों के उल्लेखों में मतभेद हो। पर न होकर केवल उसके प्रथम अध्ययन सामयिक पर है। यही कारण है कि उनके संबंध में यह भी उल्लेख मिलता है कि एक अध्ययन पर होते हुए भी इसमें ३६०३ गाथाएँ हैं। व वे आचार्य हरिभद्र के पट्ट पर बैठे। दशवैकालिकभाष्य में ६३ गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययनभाष्य भी बहुत आचार्य जिनभद्रकृत विशेषावश्यकभाष्य की प्रति शक छोटा है। इसमें केवल ४५ गाथाएँ हैं। बृहकल्प पर दो भाष्य हैं संवत् ५३१ में लिखी गई तथा वलभी के एक जैन-मंदिर में - बृहत् और लघु। बृहद्भाष्य पूरा उपलब्ध नहीं है। लघुभाष्य समर्पित की गई। इस घटना से यह प्रतीत होता है कि आचार्य ఆరురురురురురువారం-ord Ramanananda Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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