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________________ A . - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - जाता था। सातवीं शताब्दी में भाष्य लिखे गए और आठवीं में भाष्यकार के समक्ष आवश्यक चूर्णि थी। हरिभद्र ने टीकाएँ लिखीं फिर चूर्णि के समय में अंतराल बहुत इसी प्रकार जीतकल्प की चर्णि के बाद उसका भाष्य रचा कम रहता है। गया क्योंकि चूर्णि केवल जीतकल्प की गाथाओं की ही व्याख्या नियुक्तिकार के रूप में हमने चतुर्दशपूर्वी प्रथम भद्रबाहु करती है। उसमें भाष्य का उल्लेख नहीं है। यदि चूर्णिकार के को स्वीकार किया है, जिनका समय वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी समक्ष भाष्य-गाथाएँ होती तो वे अवश्य उनकी व्याख्या करते। है।३। भाष्य का समय विक्रम की चौथी-पाँचवीं, चूर्णि का चूर्णिकार ने व्यवहारभाष्य की अनेक गाथाओं को उद्धृत किया है। सातवीं तथा टीका का आठवीं से तेरहवीं शताब्दी तर्कसम्मत इस प्रसंग में निभा. ५४५ की उत्थानिका का उल्लेख भी एवं संगत लगता है। विद्वानों को इस दिशा में सोचने के लिए प्रेरित करता है। वहाँ निशीथ, बृहत्कल्प एवं व्यवहार इन तीन छेदसूत्रों के भाष्य स्पष्ट उल्लेख है कि 'सिद्धसेणायरिएण जा जयणा भणिया तं चेव के रचनाक्रम के बारे में पंडित दलसुख भाई मालवणिया का संखेवओ भद्दबाहू भण्णति' इस उद्धरण से स्पष्ट है कि यहाँ द्वितीय अभिमत है कि सबसे पहले बृहत्कल्पभाष्य रचा गया। उसके भद्रबाहु की ओर संकेत हैं। प्रथम भद्रबाहु तो सिद्धसेन की बाद निशीथभाष्य तथा अंत में व्यवहारभाष्य की रचना हुई। रचना की व्याख्या नहीं कर सकते, क्योंकि वे उनसे बहुत लेकिन हमारे अभिमत से निशीथभाष्य की रचना या संकलना प्राचीन हैं। बृहत्कल्पभाष्य (२६११) में भी इस गाथा के पूर्व सबसे बाद में हुई है। उसके कारणों की चर्चा हम पहले कर चुके टीकाकार उल्लेख करते हैं कि 'या भाष्यकृता सविस्तरं यतना पूर्व बृहत्कल्प की रचना की, यह प्रोक्ता तामेव नियुक्तिकृदेकगाथया संगृह्याह।' यह उद्धरण विद्वानों बात उनकी प्रतिज्ञा से स्पष्ट है--कप्पव्ववहाराणं वक्खाणविहिं के चिंतन या ऊहापोह के लिए है। इसके आधार पर यह संभावना पवक्खामि। इसके अतिरिक्त व्यवहारभाष्य में अनेक स्थलों पर की जा सकती है कि सिद्धसेन द्वितीय भद्रबाहु से पूर्व पाँचवीं पुव्वुत्तो, वुत्तो, जह कप्पे, वण्णिया कप्पे आदि का उल्लेख मिलता शती के उत्तरार्द्ध में हो गए थे। द्वितीय भद्रबाहु के समक्ष नियुक्तियाँ है। व्यवहार-भाष्य की निम्न गाथाओं में बृहत्कल्प की ओर तथा उन पर लिखे गए कुछ भाष्य भी थे। संकेत हैं। इनमें कुछ उद्धरण बृहत्कल्प एवं कुछ बृहत्कल्पभाष्य मनि पण्यविजयजी ने दशवैकालिक की अगस्त्यसिंह चर्णि की ओर संकेत करते हैं-- को दशवैकालिकभाष्य से पूर्व की रचना माना है तथा उसके ११७२, १२२६, १३३९, १७४८, १८३३, १९३३,२१७१, कुछ हेतु भी प्रस्तुत किए हैं। २१७३, २२७९, २२९६, २५०९, २५२३, २६६२, २८०५, २८०६, भाषा की दृष्टि से भी भाष्यरचना की प्राचीनता सिद्ध होती २८१७, २९२७,२९८३,३०६२,३२४७, ३३१३, ३३५०, ३८९६, है। अपभ्रंश की प्रवत्ति लगभग छठी शताब्दी से प्रारंभ होती है ४२३१ , ४३१४ आदि। लेकिन भाष्यों में अपभ्रंश के प्रयोग ढूँढने पर भी नहीं मिलते। यह निश्चित है कि आगमों पर लिखे गए व्याख्याग्रन्थों का इसके अतिरिक्त महाराष्ट्री का प्रभाव भी कम परिलक्षित होता है। क्रम इस प्रकार रहा है--नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका। भाष्यसाहित्य में वर्णित विषयवस्तु मद्राएँ, घटनाप्रसंग एवं लेकिन अलग-अलग ग्रन्थोंके व्याख्या-ग्रन्थों को लिखने में सांस्कृतिक तथ्य भी इसके रचनाकाल को चौथी, पाँचवीं शताब्दी इस क्रम में व्यत्यय भी हुआ है। उदाहरण के लिए पंचकल्प- से पूर्व या आगे का सिद्ध नहीं करते। अतः भाष्यकार का समय भाष्य की निम्न गाथा को प्रस्तुत किया जा सकता है-- विक्रम की चौथी, पाँचवीं शताब्दी होना चाहिए। परिजण्णेसा भणिता, सुविणा देवीए पुण्फचूलाए। . भाष्य में वर्णित विषय अन्य ग्रन्थों में भी संक्रांत हुए हैं। नरगाण दंसणेणं, पव्वज्जाऽऽवस्सए वुत्ता॥१४ . जैसे व्यवहार के भेद (आज्ञा, श्रुत आदि) पुरुषों के प्रकार एवं पुष्पचूला की कथा विशेषावश्यक-भाष्य में नहीं है, किन्त आलोचना से संबंधित अनेक प्रकरण ठाणं एवं भगवती में प्राप्त आवश्यकचूर्णि में है। इससे सिद्ध होता है है कि पंचकल्प - * होते हैं। ये सभी प्रकरण आगम-संकलनकाल में व्यवहार से prioritonirodwidnidironditoriuonitoriadminird-M८६ Haramiriibdiritoribivoritoririramidabaddinidiadra Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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