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________________ यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य सप्तम का मोहसमत्थ परीषहोपसर्ग सहनता, अष्ठम् का निर्वाण अर्थात् अन्तक्रिया एवं नवम का जिनप्रतिपादित अर्थश्रद्धान है। द्वितीय उद्देशक में पृथ्वी आदि का निक्षेप-पद्धति से विचार करते हुये उनके विविध भेद-प्रभेदों की चर्चाएँ की गई है । इसमें वध को कृत, कारित एवं अनुमोदित तीन प्रकार का बताते हुए अपकाय, तेजस्काय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय और वायुकाय जीवों की हिंसा के सम्बन्ध में चर्चा की गयी है। द्वितीय अध्ययन लोकविजय है, जिसमें कषायविजय को ही लोकविजय कहा गया है । ६२ तृतीय अध्ययन शीतोष्णीय है, जिसमें शीत व उष्ण पदों का निक्षेप - विधि से व्याख्यान करते हुए स्त्री - परीषह एवं सत्कार परीषह को शीत एवं शेष बीस को उष्णपरीषह बताया गया है । ६३ सम्यक्त्व नामक चतुर्थ अध्ययन के चारों उद्देशकों में क्रमशः सम्यक् - दर्शन, सम्यक् - ज्ञान, सम्यक - तप एवं सम्यक् - चारित्र का विश्लेषण किया गया है । ६४ पंचम अध्ययन लोकसार के छः उद्देशकों में यह बताया गया है कि सम्पूर्ण लोक का सार धर्म, धर्म का सार ज्ञान, ज्ञान का सार संयम और संयम का सार निर्वाण है । ६५ धूत नामक षष्ठ अध्ययन के पाँच उद्देशक हैं, जिसमें वस्त्रादि के प्रक्षालन को द्रव्य-धूत एवं आठ प्रकार के कर्मों के क्षय को भावधूत बताया गया है। सप्तम अध्ययन व्यवच्छिन्न है। अष्टम अध्ययन विमोक्ष के आठ उद्देशक हैं। विमोक्ष का नामादि छः प्रकार का निक्षेप करते हुए भावविमोक्ष के देशविमोक्ष व सर्वविमोक्ष दो प्रकार बताए गए हैं। साधु देशविमुक्त एवं सिद्ध सर्वविमुक्त है । ६७ नवम् अध्ययन उपधानश्रुत में नियुक्तिकार ने बताया है कि तीर्थंकर जिस समय उत्पन्न होता है, वह उस समय अपने तीर्थ में उपधानश्रुताध्ययन में तपः कर्म का वर्णन करता है । ६८ उपधान के द्रव्योपधान एवं भावोपधान दो भेद किए गए हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध - प्रथम श्रुतस्कन्ध में जिन विषयों पर चिन्तन किया गया है, उन विषयों के सम्बन्ध में जो कुछ अवशेष रह गया था या जिनके समस्त विवक्षित अर्थ का अभिधान न किया जा सका, उसका वर्णन द्वितीय श्रुतस्कन्ध में है। इसे अग्रश्रुतस्कन्ध भी कहते हैं। Jain Education International মটটমট[ ७९ For Private चूलिकाओं का परिमाण इस प्रकार है- “पिण्डैषणा " से लेकर “अवग्रहप्रतिमा” अध्ययन पर्यन्त सात अध्ययनों की प्रथम चूलिका, सप्तसप्ततिका नामक द्वितीय चूलिका, भावना नामक तृतीय, विमुक्ति नामक चतुर्थ एवं निशीथ नामक पंच चूलिका है । ६९ ५. सूत्रकृतांगनियुक्ति इस नियुक्ति में २०५ गाथाएँ हैं । प्रारम्भ में सूत्रकृतांग शब्द की व्याख्या के पश्चात् अम्ब, अम्बरीष, श्याम, शबल, रुद्र, अवरुद्र, काल, महाकाल, असिपल, धनु, कुम्भ, बालुक, वैतरणी, खरस्वर और महाघोष नामक पन्द्रह परमाधार्मिकों के नाम गिनाए गए हैं। गाथा ११९ में आचार्य ने ३६३ मतान्तरों का निर्देश किया है, जिसमें १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानवादी और ३२ वैनयिक है। इसके अतिरिक्त शिष्य और शिक्षक के भेद-प्रभेदों की भी विवेचना की गई है । ७१ ६. दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति यह निर्युक्ति दसाश्रुतस्कन्ध नामक छेदसूत्र पर है। प्रारम्भ में नियुक्तिकार ने दशा, कल्प और व्यवहार श्रुत के कर्त्ता सकल श्रुतज्ञानी श्रुतकेवली आचार्यभद्रबाहु को नमस्कार किया है । ७२ तदनन्तर दस अध्ययनों के अधिकारों का वर्णन किया है। प्रथम अध्ययन असमाधिस्थान की नियुक्ति में द्रव्य व भाव समाधि की विवेचना की गई है। द्वितीय अध्ययन शबल की नियुक्ति में चार निक्षेपों के आधार पर शबल की व्याख्या करते हुए आजार से भिन्न अर्थात् गिरे व्यक्ति को भावशबल कहा गया है। तृतीय अध्ययन आशातना की नियुक्ति में मिथ्या प्रतिपादन सम्बन्धी एवं लाभ सम्बन्धी दो आशातना की चर्चा की गई है। गणिसम्पदा नामक चतुर्थ अध्ययन में गणि एवं संपदा पदों की व्याख्या करते हुए "गणि" व "गुणी" को एकार्थक बताया गया है। आचार को प्रथम गणिस्थान दिया गया है, क्योंकि इसके अध्ययन से श्रमणधर्म का ज्ञान होता है। संपदा के द्रव्य व भाव दो भेद करते हुए आचार्य ने शरीरसंपदा को द्रव्यसंपदा एवं आचारसंपदा को भावसंपदा का नाम दिया है। ७३ चित्तसमाधिस्थान नामक पंचम अध्ययन की नियुक्ति में उपासक एवं प्रतिमा का निक्षेपपूर्वक विवेचन किया गया है। चित्त व समाधि की चार निक्षेपों के आधार पर व्याख्या करते Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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