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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्ध - जैन आगम एवं साहित्य - में कहा है कि अपने गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती को सम्मत आचार्य नरेन्द्रसेन - धर्मरत्नाकार की प्रशस्ति में धर्मसेन, अथवा ग्रन्थकर्ता नेमिचंद्र सिद्धान्तदेव के अभिप्राय का अनुसरण शान्तिषेण, गोपसेन और भावसेन आचार्यों के नाम क्रम से दिए करने वाली कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र त्रैविध्य ने भी यहाँ वहाँ हैं। जयसेनाचार्य भावसेनाचार्य के शिष्य थे। जयसेनाचार्य ने रची हैं। माधवचन्द्र भी करणानुयोग के पंडित थे। इनकी गणितशास्त्र अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करके धर्मरत्नाकर की प्रशस्ति में विशेष गति थी। इनके द्वारा सिद्ध गणित को त्रिलोकसार में निबद्ध समाप्त की है। इस प्रशस्ति के आगे नरेन्द्रसेनाचार्य ने अपने किया गया है और यह गाथा में प्रयुक्त माधवचंदुद्धरिया पद से जो पर्ववर्ती ब्रह्मसेन, वीरसेन तथा गणसेन इन तीन और आचार्यों द्वयर्थक है. स्पष्ट होता है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में का उल्लेख किया है। नरेन्द्रसेन गणसेन आचार्य के शिष्य हाए हैं। योगमार्गणाधिकार में इनके मत का निर्देश है। अतः गुरुजनों के गणसेन आचार्य के नरेन्द्रसेन के समान गणसेन. उदयसेन और साथ शिष्यजन भी इस ग्रन्थरचना-गोष्ठी में सम्मिलित थे।६३ जयसेन जैसे अन्य तीन शिष्य थे। प्रथम गुणसेन के पट्ट पर ये इंद्रनन्दि - ये ९३९ ई. में लिखी गई ज्वालामालिनीकल्प के द्वितीय गुणसेन आरूढ़ होकर आचार्य पद भूषित करने लगे। रचनाकार माने जाते हैं। इनके द्वारा रचित श्रुतावतार ग्रन्थ भी आचार्य नरेन्द्रसेन की दो रचनाएँ प्राप्त होती हैं--(१) प्राप्त होता है। सिद्धान्तसारसंग्रह और (२) प्रतिष्ठादीपक। सिद्धान्तसारसंग्रह में रत्नत्रय तथा जीवादि सात तत्त्वों का स्वरूप विधिवत् समझाया कनकनन्दि - इनके द्वारा सत्त्वस्थान (विस्तार सत्तरिभङ्गी) गया है। प्रतिष्ठासारदीपक में जिनमूर्ति, जिनमंदिर आदि के निर्माणों की रचना की गई थी। में तिथि, नक्षत्र, योग आदि का विचार किया गया है। स्थाप्य, अभयनन्दि - ये विबुधगुणनन्दि के शिष्य और वीरनन्दी के गुरु थे। स्थापक और स्थापना इन तीन विषयों का इसमें वर्णन है। अजितसेन - नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के एक गुरु अजितसेन पञ्चपरमेष्ठी तथा उनके पंचकल्याणक और जो जो पुण्य के हेतुभूत हैं, वे स्थाप्य हैं। यजमान इन्द्र स्थापक हैं। मंत्रों से जो विधि की थे। ये सेनसंघ के आर्यसेन के शिष्य थे। ये चामुण्डराय के जाती है, उसे स्थापना कहते हैं। तीर्थंकरों के पंचल्याणक जहाँ हए पारिवारिक गुरु थे। गङ्गराजा मारसिंह द्वितीय ने ९७४ ई. में हैं, ऐसे स्थान तथा अन्य पवित्रस्थान, नदी तट, पर्वत, ग्राम, अजितसेन गुरु के सानिध्य में सल्लेखना ग्रहण की थी। अजितसेन नगरादिकों के सुंदर स्थान में जिनमंदिर निर्माण करना चाहिए।६६ ने चामुण्डराय को श्रवणबेलगोला में विन्ध्यगिरि पर बाहुबली प्रतिमा की स्थापना की प्रेरणा दी थी। वे इस प्रतिमा के स्थापनासमारोह आचार्य नरेन्द्रसेन का काल विक्रम संवत् की १२वीं शती के अधिष्ठाता थे। संभवत: नेमिचन्द्र इनके सहायक थे । का मध्यभाग सिद्ध होता है। वीरनन्दी - वीरनन्दी असाधारण विद्वान थे. ऐसा उनकी कति वादाभसिहसूरि - इनका जन्मनाम ओडयदेव, दीक्षानाम चन्द्रप्रभचरित के अध्ययन एवं अन्य उल्लेखों से जात होता है। अजितसेन और पाण्डित्योपार्जित उपाधि वादीभसिंह हैं। ये पष्पसेन चन्द्रप्रभचरित के क्रियापदों के देखने स्पष्ट है कि वीरनन्दी का मुनि के शिष्य थे। ये तर्क, व्याकरण, छन्द, काव्य, अलंकार व्याकरणशास्त्र पर पूर्ण अधिकार रहा। द्वितीय सर्ग (श्लो. ४४- और कोश आदि ग्रंथों के मर्मज्ञ थे। इनके वादित्वगुण की समाज ११०) यह सिद्ध करता है कि वीरनन्दी जैन व जैनेतर दर्शनों के में बड़ी प्रसिद्धि थी। इनका काल ८वीं शताब्दी माना जाता है। अधिकारी विद्वान् थे। तत्त्वोपप्लव-दर्शन की समीक्षा के संदर्भ इन्होंने क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि नामक दो काव्यग्रंथों में उन्होंने जो युक्तियाँ दी हैं, वे अष्टसहस्री आदि विशिष्ट दार्शनिक का प्रणयन किया। इनमें से प्रथम रचना पद्य में और द्वितीय गद्य ग्रन्थों में भी दृष्टिगोचर नहीं होती। अंतिम सर्ग वीरनन्दी की सिद्धान्त में है। श्रवणबेलगोल की मल्लिषेण-प्रशस्ति में इनके दो शिष्यों मर्मज्ञता को व्यक्त करता है। चन्द्रप्रभचरित के तत्तत्प्रसङ्गों में का उल्लेख पाया जाता है--(१) शान्तिनाथ और (२) पद्मनाभ। चर्चित राजनीति, गजवशीकरण और शकुनअपशकुन आदि संस्कृत-गद्यकारों में जो स्थान बाणभट्ट का है, वही स्थान जैनविषय उनकी बहुज्ञता को प्रमाणित करने में सक्षम हैं ६५। इनका संस्कृत-गद्य-लेखकों में आचार्य वादीभसिंह का है। उन्होंने काल विक्रम की ग्यारहवीं शती का पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है। गद्यचिन्तामणि काव्य लिखकर संस्कृत और जैन गद्यकाव्य को aortraitariandorovarioritibrobridroidonitor .orriddindiandidroidroiandidroidroid-didndramdaare Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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