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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य कवि परमेश्वर - आदिपराण में कवि परमेश्वर या परमेष्ठी को विद्यानन्द महोदय सम्प्रति अनुपलब्ध है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक वागर्थसंग्रह नामक पराण-ग्रंथ का रचयिता कहा गया है। की रचना तत्त्वार्थसूत्र पर भाष्य के रूप में मीमांसाश्लोकवार्तिक चामुण्डराय ने अपने पुराण में कवि परमेश्वर के नाम से अनेक के अनुकरण पर की गई। भट्टाकलङ्क की अष्टशती के गूढ़ रहस्य पद्य उद्धृत किए हैं। कन्नड-कवि आदिपम्प, अभिनव पम्प, को समझाने के लिए अष्टसहस्री की रचना की गई। इसके गौरव नयसेन, अग्गलदेव और कमलभव आदि ने आदरपर्वक कवि को आचार्य विद्यानन्द ने स्वयं इन शब्दों में व्यक्त किया हैपरमेश्वर का स्मरण किया है। आचार्य गणभद्र ने परमेश्वर के “हजार शास्त्रों के सुनने से क्या लाभ है, केवल इस अष्टसहस्री कथाकाव्य को छन्द, अलंकार और गढार्थ यक्त बतलाया है। को सुन लीजिए। इतने से ही स्वसिद्धान्त और परसिद्धांत का इनके इस कथा-ग्रंथ की रचना गद्य में बतलाई गई है।५२ ज्ञान हो जाएगा।" युक्त्यनुशासनालङ्कार आचार्य समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन की टीका है। आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा और जिनसन द्वितीय - पंचस्तूपान्वयी स्वामी वीरसेन के पट्टशिष्य सत्यशासनपरीक्षा परीक्षान्त ग्रंथ है. जो दिङनाग की आलंबनपरीक्षा सेनसंघी आचार्य जिनसेन के माता-पिता, जन्मस्थान आदि की। और त्रिकालपरीक्षा, धर्मकीर्ति की संबंधपरीक्षा, धर्मोतर की कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। जयधवला टीका प्रमाणपरीक्षा व लघुप्रमाणपरीक्षा तथा कल्याणरक्षित की की प्रशस्ति के अनुसार कर्णच्छेदन से भी पहले इन्होंने वीरसेन श्रुतिपरीक्षा जैसे परीक्षान्त ग्रंथों की याद दिलाते हैं। विद्यानन्द स्वामी के संघ में रहना प्रारंभ कर दिया था। आसन्नभव्यता, को परीक्षान्त नाम रखने में इनसे प्रेरणा मिली हो, इसमें आश्चर्य मोक्षलक्ष्मी की समुत्सुकता और ज्ञानलक्ष्मी के वरण हेतु इन्होंने नहीं। पहले शास्त्रार्थो में जो पत्र दिए जाते थे. उनमें क्रियापद गढ बाल्यावस्था में ही ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया था। इनका रहते थे. जिनका आशय समझना कठिन होता था। उसी के विवेचन शारीरिक आकार अधिक सुंदर नहीं था और न ये अधिक चतुर के लिए विद्यानन्द ने पत्रपरीक्षा नामक एक छोटे से प्रकरण की थे। श्री, शम और विनय उनके नैसर्गिक गुण थे, जिसके कारण । रचना की थी। जैन परंपरा में इस विषय की संभवतः यह प्रथम विद्वज्जन भी उनकी आराधना करते थे, क्योंकि गुणों के द्वारा और अंतिम रचना है। श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र की रचना अतिशयक्षेत्र कौन व्यक्ति आराधना को प्राप्त नहीं होता है। वे यद्यपि शरीर से श्रीपुर के पार्श्वनाथ के प्रतिबिम्ब को लक्ष्य में रखकर की गई है। कृश थे, किन्तु तपोगुण से कृश नहीं थे। शरीर से दुर्बल व्यक्ति अष्टसहस्री की अंतिम प्रशस्ति में बताया है कि कुमारसेन दुर्बल नहीं होता है, किन्तु जो व्यक्ति गुणों से दुर्बल है, वही वास्तव में दुर्बल है। ज्ञान की आराधना में इनका समय निरंतर की युक्तियों के वर्द्धनार्थ ही यह रचना लिखी जा रही है। इससे ध्वनित होता है कि कुमारसेन ने आप्तमीमांसा पर कोई विवृत्ति व्यतीत होता था, अतः तत्त्वदर्शी उन्हें ज्ञानमयपिण्ड कहा करते या विवरण लिखा होगा। जिसका स्पष्टीकरण विद्यानन्द ने किया थे ५३। उनके द्वारा रचित कृतियाँ निम्नलिखित हैं है। निश्चयतः कुमारसेन इनके पूर्ववर्ती हैं। कुमारसेन का समय १. आदिपुराण, २. पार्वाभ्युदय, ३. जयधवला टीका, जिनसेन । ई. सन् ७८३ के पूर्व माना गया है।५४ का काल ई. सन् की नवम शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। अनन्तवीर्य - जैन साहित्य में दो अनन्तवीर्यों का नाम मिलता विद्यानन्द - आचार्य विद्यानन्द ७७०-८४० ई. के विद्वान् है। इनमें से एक अनन्तवीर्य ने अकलंक के सिद्धिविनिश्चय पर माने जाते हैं। उन्होंने इतरदार्शनिकों के साथ नागार्जुन, वसुबन्धु, टीका लिखी है। प्रभाचंद्र ने न्यायकमदचन्द्र में इनका स्मरण दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर तथा धर्मात्तर इन बौद्धदार्शनिकों के किया है और प्रमेयरत्नमाला में अनन्तवीर्य ने प्रभाचंद्र का स्मरण ग्रंथों का सर्वाङ्गीण अभ्यास किया था। इसके साथ ही साथ जैन किया है। दो सिट है कि दोनों अनन्ततीर्य : किया है। इससे सिद्ध है कि दोनों अनन्तवीर्य भिन्न हैं। उत्तरवर्ती दार्शनिक तथा आगमिक साहित्य भी उन्हें विपुल मात्रा में प्राप्त होने से प्रमेयरत्नमाला के रचयिता अनन्तवीर्य को लघ अनन्तवीर्य था। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नलिखित है--१. विद्यानन्द के नाम से भी कहा जाता है। अपने टिप्पण के प्रारंभ में टिप्पणकार महोदय, २ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ३. अष्टसहली, ४. नेहनका ला अनन्नती देव के नाम से उल्लेख किया है। यक्त्यनुशासनालङ्कार, ५. आप्तपरीक्षा, ६. प्रमाणपरीक्षा, ७. इन्होंने माणिक्यनन्दि के परीक्षामख सत्रों की संक्षिप्त किन्त पत्रपरीक्षा, ८. सत्यशासनपरीक्षा, ९. श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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