SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ थतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - यह समझता हूँ कि वे अंतरङ्ग तथा बहिरङ्ग रज से (अपना) ज्ञान के आधार पर हुई होगी। कुन्दकुन्द के अष्टपाहुडों में से अत्यंत अस्पृष्टत्व व्यक्त करते थे (वे अंतरङ्ग में रागादि मल से कुछ में विषयवस्तु की व्याख्या बड़ी सुव्यवस्थित है, जैसे चरित्तऔर बाह्य में धूलि से अस्पष्ट थे)। पाहुड तथा बोधपाहुड। सुत्तपाहुड तथा भावपाहुड में विषयवस्तु आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा निर्मित ग्रंथ निम्नलिखित हैं - केवल सम्पादित प्रतीत होती है। भावपाहुड की विषय वस्तु अपेक्षाकृत विविध है। उसमें जो पौराणिक संदर्भ पाए जाते हैं, वे १.नियमसार, २. पंचास्तिकाय ३. प्रवचनसार ४. समयसार यह निर्देश करते हैं कि बहुत से जैन पौराणिक संदर्भो की उपस्थिति ५. बारस अणुवेक्खा ६. दंसणपाहुड ७. चरित्तपाहुड ८. सुत्तपाहुड ईसा के प्रारंभ में प्रवाहित थी। इन पाहुडों का पश्चात्कालीन ९. बोधपाहुड १०. भावपाहुड ११. मोक्खपाहुड १२. सीलपाहुड लेखकों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। पूज्यपाद ने अपने समाधिशतक १३. लिंगपाहुड १४ दसभत्ति संगहो। कहा जाता है कि आचार्य की रचना अधिक व्यवस्थित रूप से सुदृढ़ वस्तुवैज्ञानिक कुन्दकुन्द ने चौरासी पाहुडों की रचना की थी। अभिव्यक्तिशैली में की जो प्रमुखतः मोक्षपाहुड पर आधारित है। बारस अणवेक्खा के अंत में कुन्दकुन्द ने अपने नाम का अमृतचंद्राचार्य के बहुत से पद्य इन पाहुडों की गाथाओं को याद निर्देश किया है। धप्राभूत के अंत में हम पाते हैं कि इसकी दिलाते हैं, जिन्हें वे उद्धृत भी करते हैं। गुणभद्र ने अपने आत्मानुशासन रचना भद्रबाहु के शिष्य ने की। कुछ लोगों ने कुन्दकुन्द को में भावपाहुड आदि की गाथाओं का घनिष्ठता से अनुसरण किया है। भद्रबाहु का साक्षात् शिष्य न मानकर परम्पराशिष्य माना है। बारस अणुवेक्खा में बारह भावनाओं का विवेचन है। कर्मों के आचार्य कुन्दकुन्द की तीन कृतियाँ पंचास्तिकाय, प्रवचनसार आस्रव को रोकने के लिए ये आवश्यक हैं। नियमसार में १८७ और समयसार सम्भवत: वेदान्त के प्रस्थानत्रय के साम्य पर गाथाएँ हैं। इस रचना के लेखक का उद्देश्य त्रिरत्न पर मूलत: विचार नाटकत्रय अथवा प्राभृतत्रय कहलाती हैं। इससे यह ध्वनित करना है, जो कि नियम रूप मोक्ष का मार्ग निर्मित करते हैं। होता है कि जैनों के लिए ये कृतियाँ उतनी ही पवित्र और पंचास्तिकाय में समय को पांच अस्तिकाओं के रूप में आधिकारिक हैं, जितनी वेदान्तियों के लिए उपनिषद् ब्रह्मसूत्र . परिभाषित किया गया है। पाँच अस्तिकायों में काल को मिलाकर और भगवद्गीता। उनके अधिकांश कथन साम्प्रदायिकता से परे छह द्रव्य है। समयसार की रचना का उद्देश्य नैश्चयिक दृष्टि से शुद्ध हैं। उनके समयसार का अध्ययन दिगम्बर, श्वेताम्बर और आत्मा का अनुभव कराना है। प्रत्येक मुमुक्षु को समस्त आसक्तियों स्थानकवासियों ने समानरूप से किया है तथा हजारों आध्यात्मिक से ऊपर उठकर पूर्ण शुद्ध आत्मा का अनुभव करना चाहिए। व्रती पुरुषों तथा साधुओं ने कुन्दकुन्द से धार्मिक अभिप्रेरणा प्रवचनसार एक शैक्षणिक धर्मग्रंथ तथा नवदीक्षित के लिए व्यावहारिक और आत्मिक सांत्वना प्राप्त की है। नियमपुस्तिका है। पूरी कृति प्रौढ़ मस्तिष्क की स्वामित्वपूर्ण पकड़ कुन्दकुन्द के प्राभृत ग्रन्थ आध्यात्मिक उद्देश्य से निर्मित है। इसमें ज्ञान, द्रव्य, गुण, पर्याय, जीव, पुद्गल, सर्वज्ञ तथा या सम्पादित किए गए थे। ये परमात्मा को भक्तिपूर्ण भेंट हैं। स्याद्वाद आदि विषयों का अच्छा विवेचन है। जयसेन ने प्राभृत की व्याख्या करते हुए कहा है कि जैसे कोई उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त रमणसार, तिरुक्कुरल, मूलाचार देवदत्त नामक पुरुष राजा के दर्शन के लिए कोई सारभूत वस्तु भूतपन आदि कृतियाँ भी आचार्य कुन्दकुन्दकृत मानी जाती है। कहा राजा को देता है, वह सारभूत वस्तु प्राभृत कहलाती है। इसी । ___जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने षट्खण्डागम पर परिकर्म प्रकार परमात्माराधक पुरुष के निर्दोष परमात्मराज के दर्शन के नामक टीका लिखी थी। आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वाधिक प्रसिद्ध लिए यह शास्त्र भी प्राभृत है। कृति समयसार है। समयसार में लेखक का उद्देश्य पाठकों पर दसभक्तियाँ सशक्त मताग्रह तथा धार्मिक भूमिका के यह प्रभाव डालना है कि कर्म से सम्बद्धता के अज्ञान के फलस्वरूप साथ भक्तिपूर्ण प्रार्थनाएँ हैं। तित्थयरभक्ति दिगंबर तथा श्वेताम्बर अनेक आत्माओं के आत्म-साक्षात्कार में बाधा पड़ी हुई है। दोनों परंपराओं को मान्य है। दोनों परंपराओं ने इसे विरासत के अतः प्रत्येक मुमुक्षु को समस्त आसक्तियों से ऊपर उठकर पूर्ण रूप में पाया होगा। अवशिष्ट भक्तियों की रचना भी पारम्परिक शुद्ध आत्मा का अनुभव करना चाहिए। अज्ञानी आत्मा की andraniwariramidditomidniwondwanoranbroridororanird- ४८randiridroddroiddondinorbivorironironirdword Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy