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________________ -- यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - जैन आगम एवं साहित्य - का उल्लेख करते हुए इन दोनों को आचार्य-परम्परा का अभिज्ञ स्वर्गस्थ हो गए, तब उनके अनन्यतम शिष्य जिनसेन ने ४० माना गया है। वहाँ कहा गया है कि विपुलाचल के ऊपर स्थित हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर एक अनुपम उदाहरण जगत् भगवान् महावीर रूपी दिवाकर से निकलकर गौतम, लोहार्य, के समक्ष रखा। अपने गुरु वीरसेनाचार्य की महिमा बतलाते हुए जम्बू स्वामी आदि आचार्य परम्परा से आकर गुणधराचार्य को जिनसेन स्वामी ने कहा है कि षट्खण्डागम में उनकी वाणी प्राप्त होकर वहाँ गाथा रूप से परिणमन करके पुनः आर्यभक्षु अस्खलित रूप से प्रवर्तित होती थी। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक और नागहस्ति आचार्य के द्वारा आर्य यतिवृषभ को प्राप्त होकर प्रज्ञा को देखकर किसी भी बुद्धिमान् को सर्वज्ञ की सत्ता में चूर्णिसूत्ररूप से परिणत हुई दिव्यध्वनि किरण रूप से अज्ञान शंका नहीं रही थी। वीरसेन स्वामी की धवला टीका ने षटखण्डागम अंधकार को नष्ट करती है। सूत्रों को चमका दिया। जिनसेन ने उन्हें कवियों का चक्रवर्ती इससे स्पष्ट है कि ये दोनों आचार्य अपने समय के कर्मसिद्धांत तथा अपने आपके द्वारा परलोक का विजेता कहा है। के महान् वेत्ता और आगम के पारगामी थे। आचार्य वीरसेन ने नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार भगवान् महावीर की लिखा है - २९वीं पीढ़ी में अर्हदबलि मुनिराज हुए। तीसवीं पीढ़ी में माघनन्दी गुणहरवयणविणिग्गिय - गाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो। मनिराज हए। माघनन्दी स्वामी के दो शिष्य थे- १. जिनसेन, २. जेणज्जमखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ॥7॥ धरसेन। जिनसेन स्वामी के शिष्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य और धरसेन जो अज्जयमुंखुसीसो अंतेवासी विणादगहत्थिस्स। स्वामी के शिष्य श्री पुष्पदन्त और भूतबलि थे। इस हिसाब से सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो में वरं देऊ ॥8॥ धरसेन स्वामी तीर्थंकर वर्द्धमान की ३१वीं पीढ़ी में हुए और अर्थात् जिन आर्यभक्षु और नागहस्ति ने गणधराचार्य के कुन्दकुन्द स्वामी तथा पुष्पदन्त भूतबलि आचार्य ३२वीं पीढी में मुखकमल से विनिर्गत कसायपाहुड की गाथाओं के समस्त हुए, इसलिए धरसेन स्वामी आचार्य कुन्दकुन्द के काका-गुरु होते अर्थ को सम्यक प्रकार ग्रहण किया, वे हमें वर प्रदान करें। हैं। आचार्य कुन्दकुन्द तथा पुष्पदन्त एवं भूतबलि आचार्य गुरुभाई होते हैं। षट्खण्डागम सूत्र पर जो अनेक टीकाएँ रची गई हैं, उनमें डॉ. ज्योतिप्रसाद जैनागहस्ति की तिथि ई. सन् १३० सबसे पहली टीका परिकर्म है। परिकर्म की रचना कौण्डकौण्डपुर १३२ निर्धारित की है और आर्यभक्षु को नागहस्ति से पूर्ववर्ती में ___ में श्री पद्मनन्दि मुनि (आचार्य कुन्दकुन्द) ने की थी। मानकर उनका समय ई. सन् ५० माना है। षटखण्डागम के छह खण्डों में से प्रथम तीन सीटों पर षट्खण्डागम के टीकाकार परिकर्म नामक बारह हजार श्लोकप्रमाण टीका ग्रंथ की रचना विक्रम की ९वीं शताब्दी और शक संवत् की ८वीं शताब्दी उन्होंने की। धवल-जयधवल टीका में वीरसेन स्वामी ने अपने में आचार्य वीरसेन जैनदर्शन के दिग्गज विद्वान् आचार्य थे। कथन की पुष्टि के लिए कितने ही स्थानों पर परिकर्म के कथन षटखण्डागम ग्रंथ की रचना के आठ सौ वर्ष बाद आप ही एक का उल्लेख किया है। षटखण्डागम में छह खण्ड हैं। उनमें छठे ऐसे अद्वितीय आचार्य हुए हैं कि षटर्खण्डागम पर धवला नामक खण्ड का नाम महाबंध है, इसकी टीका खूब विस्तृत है और टीका लिखकर एक अद्वितीय कार्य किया। यह टीका बहत्तर वही महाधवल के रूप में प्रसिद्ध है। इस महाबंध की भी ताड़ सोनारों वाली बाहों पत्र पर लिखी हुई प्रति मूडबिद्री के शास्त्रभण्डार में सुरक्षित है। पर लिखी हुई सुरक्षित है। कषाय प्राभृत के रचयिता गुणधर षट्खण्डागम और कषाय-प्राभृत दोनों सिद्धांत-ग्रंथों पर स्वामी हैं। यतिवृषभ स्वामी ने चूर्णिसूत्रों द्वारा उसे स्पष्ट किया अनेके टीकाएँ रची गई हैं, जिनमें षटखण्डागम की धवला है। आचार्य वीरसेन के गुरु का नाम एलाचार्य था। टीका कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्र एवं जयधवला टीका तथा महाबंध उनके पास ही उन्होंने सिद्धांतग्रंथों का अध्ययन किया पर महाधवला नामक टीका उपलब्ध है। अन्य टीकाएँ उपलब्ध था। कसायपाहड की जयधवला टीका लिखने के पश्चात वे नहीं हैं। इन टीकाओं का विवरण निम्नलिखित है - randaridabrdastdidiworidabromidnidroidmiriram [ ४५Hamiriramiriramdaniramidniriramidnidhwaridwara Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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