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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ निगदत्यस्माकमायुरवशिष्टम् । स्वल्प तस्मादस्मच्छुतस्य शास्त्रस्य व्युच्छित्तिः ॥ न स्यात्तथा तथा द्वौ यतीश्वरौ ग्रहणधारणसमर्थौ निशितप्रज्ञौ यूयं प्रस्थापयत ...... ।।" 'स्वस्ति श्रीमान् ऊर्जयन्त तट के निकट स्थित चन्द्र गुहावास से धरसेनाचार्य वेणाक तट पर स्थित मुनिसमूहों की वन्दना करके इस प्रकार से कार्य को कहते हैं कि हमारी आयु अब अल्प ही अवशिष्ट रही है। इसलिए हमारे श्रुतज्ञानरूप शास्त्र का व्युच्छेद जिस प्रकार न हो, उसी तरह से आप लोग तीक्ष्ण बुद्धि वाले श्रुत को ग्रहण और धारण करने में समर्थ दो यतीश्वरों को मेरे पास भेजो।' मुनिसंघ ने आचार्य धरसेन के श्रुतरक्षा सम्बन्धी अभिप्राय को जानकार दो मुनियों को गिरिनगर भेजा। वे मुनिविद्या ग्रहण करने में तथा उसका स्मरण रखने में समर्थ थे। अत्यन्त विनयी तथा शीलवान् थे। उनके देश, कुल और जाति शुद्ध थे और वे समस्त कलाओं में पारङ्गत थे। जब वे दो मुनि गिरिनगर की ओर जा रहे थे, तब यहाँ श्री धरसेनाचार्य ने ऐसा शुभ स्वप्न देखा कि दो श्वेत वृषभ आकर उन्हें विनयपूर्वक वन्दना कर रहे हैं। उस स्वप्न से उन्होंने जान लिया कि आने वाले दोनों मुनि विनयवान एवं धर्मधुरा को वहन करने में समर्थ उनके मुख से 'जयउ सुयदेवदां' ऐसे आशीर्वादात्मक वचन निकले। दूसरे दिन दोनों मुनिवर आ पहुँचे और विनयपूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणों में वन्दना की। दो दिन पश्चात् श्री धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा की। एक को अधिक अक्षरों वाला और दूसरे को हीन अक्षरों वाला विद्यामंत्र देकर दो उपवास सहित उसे साधने को कहा। ये दोनों गुरु द्वारा दी गई विद्या को लेकर और उनकी आज्ञा से नेमिनाथ तीर्थंकर की सिद्धभूमि जाकर नियमपूर्वक अपनीअपनी विद्या की साधना करने लगे। जब उनकी विद्या सिद्ध हो गई, तब वहाँ पर उनके सामने दो देवियाँ आईं। उनमें से एक देवी के एक आँख थीं और दूसरी देवी के दाँत बड़े-बड़े थे। Jain Education International जैन आगम एवं साहित्य ! अपने-अपने मंत्रों को शुद्ध कर पुनः अनुष्ठान किया, जिसके फलस्वरूप देवियाँ अपने यथार्थ स्वरूप में प्रकट हुईं और बोलीं कि हे नाथ ! आज्ञा कीजिए। हम आपका क्या कार्य करें दोनों मुनियों ने कहा- देवियो ! हमारा कुछ भी कार्य नहीं है। हमने तो केवल गुरुदेव की आज्ञा से ही विद्या मंत्र की आराधना की है। यह सुनकर वे देवियाँ अपने स्थान को चली गईं। पुष्पदन्त और भूतबलि- डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने पुष्पदन्त का समय ई. सन् ५०-८० माना है तथा भूतबलि का समय ई. सन् ६६-९० माना है। उपर्युक्त विवरण के अनुसार ये दोनों धरसेनाचार्य के शिष्य थे। पुष्पदन्त मुनिराज अपने भानजेको मुनियों ने जब सामने देवियों को देखा, तो जान लिया कि पढ़ाने के लिए महाकर्म प्रकृति प्राभृत का छह खण्डों में उपसंहार मंत्रों में कोई त्रुटि है, क्योंकि देव विकृताङ्ग नहीं होते तब व्याकरण की दृष्टि से उन्होंने मंत्र पर विचार किया, जिसके सामने एक आँख वाली देवी आई थी, उन्होंने अपने मन्त्र में एक वर्ण कम पाया तथा जिसके सामने लम्बे दाँतों वाली देवी आई थी, उन्होंने अपने मंत्र में एक वर्ण अधिक पाया। दोनों ने करना चाहते थे, अतः उन्होंने बीस अधिकार गर्भित सत्प्ररूपणा सूत्रों को बनाकर शिष्यों को पढ़ाया और भूतबलि मुनि का अभिप्राय जानने के लिए जिनपालित को यह ग्रंथ देकर उनके पास भेज दिया। इस रचना को और पुष्पदन्त मुनि के षट्खण्डागम रचना के अभिप्राय को जानकर एवं उनकी आयु भी अल्प है, ४३ For Private मुनियों की इस कुशलता से गुरु ने जान लिया कि सिद्धांत का अध्ययन करने के लिए वे योग्य पात्र हैं। आचार्यश्री ने उन्हें सिद्धांत का अध्ययन कराया। वह अध्ययन आषाढ़ शुक्ला एकादशी के दिन पूर्ण हुआ। उस दिन देवों ने दोनों मुनियों की पूजा की। एक मुनिराज के दाँतों की विषमता दूर कर देवों ने उनके दाँत कुन्दपुष्प के समान सुन्दर करके उनका पुष्पदंत यह नामकरण किया तथा दूसरे मुनिराज की भी भूत जाति के देवों ने तूर्यनाद, जयघोष, गंधमाला, धूप आदि से पूजा कर 'भूतबलि' नाम से घोषित किया। अनन्तर श्री धरसेनाचार्य ने विचार किया कि मेरी मृत्यु का समय निकट है। इन दोनों को संक्लेश न हो, यह सोचकर वचनों द्वारा योग्य उपदेश देकर दूसरे दिन ही वहाँ से कुरीश्वर देश की ओर विहार करा दिया। यद्यपि वे दोनों गुरु के चरण - सान्निध्य में कुछ समय रहना चाहते थे, तथापि गुरु के वचन अनुल्लङ्घनीय हैं, ऐसा विचार कर वे उसी दिन वहाँ से चल दिए और अंकलेश्वर (गुजरात) में आकर उन्होंने वर्षाकाल बिताया। वर्षाकाल व्यतीत कर पुष्पदन्त आचार्य तो अपने भानजे जिनपालित के साथ वनवास देश को चले गए और भूतबलि भट्टाख द्रविड़ देश को चले गए। Personal Use Only जे www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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