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________________ - यतीन्दसूरिस्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - पसिस्सेसु अव्वोच्छित्तिकरं भगइ। तत्रादौ मंगलं भाषाओं में पर्याय दिए हैं-सक्कयं जहा वृक्ष इत्यादि, पागतं जहा पापप्रतिपेधकत्वादिदं सूत्रम्... रुक्खो इत्यादि। देशाभिधानं च प्रतीत्य अनेकाभिधानं भवति --बृहतकल्पचूर्णि, पृ.१. जधा ओदणो मागधाणं कूरो लाडाणं चोरो दमिलाणं इडाकु अंधाणं । संस्कृत में जिसे वृक्ष कहते हैं वही प्राकृत में रुक्ख, मंगलादीणि सत्थाणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाणि मगध देश में ओदण, लाट में कूर, दमिल-तमिल में चोर और मंगलपरिग्गहिता य सिस्सा अवग्गहेहापायधारणासमत्था अविग्घेण अंध-आंध्र में इडाकु कहा जाता है। सत्थाणं पारगा भवंति। ताणि य सत्थाणि लोगे वियरंति वित्थारं च गच्छति। तत्थादिमंगलेण निव्विग्घेण सिस्सा सत्थस्स पारं कर्म-बंध की चर्चा करते हुए एक जगह चूर्णिकार ने गच्छन्ति। मज्झमंगलेण सत्थं थिरपरिचिअंभवइ अवसाणमंगलेण विशेषावश्यकभाष्य तथा कर्मप्रकृति का उल्लेख किया है-- सत्थं सस्स पसिस्सेसु परिचयं गच्छति। तत्थादिमंगलं.... - वित्थरेण जहा विसेसावस्सगभासे सामित्तं चेव सव्वपगडीणं को दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि, पृ. १ केवतियं बंधइ खवेइ वा, कत्तियं को उत्ति जहा कम्मपगडीए।१ इसी प्रकार प्रस्तुत चूर्णि में महाकल्प और गोविंदनियुक्ति का इन दोनों पाठों में बहुत समानता है। ऐसा प्रतीत होता है भी उल्लेख है - तत्थ नाणे महाकप्पसुयादीणं अट्ठाए। दंसणे कि दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि के पाठ के आधार पर बृहत्कल्पचूर्णिी गोविन्दनिज्जुत्तादीण।८२ का पाठ लिखा गया है। दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि का उपर्युक्त पाठ संक्षिप्त एवं संकोचशील है, जबकि बृहत्कल्पचूर्णि का पाठ चूर्णि के प्रारंभ की भाँति अंत में भी चूर्णिकार के नाम का विशेष स्पष्ट एवं विकसित प्रतीत होता है। भाषा की दृष्टि से भी कोई उल्लेख अथवा निर्देश नहीं है। अंत में केवल इतना ही दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि बृहत्कल्पचर्णि से प्राचीन मालम होती है। उल्लेख है - कल्पचूर्णी समाप्ता। ग्रन्था ५३०० जितना बहत्कल्पचर्णि पर संस्कृत का प्रभाव है उतना प्रत्यक्षरगणनयानिणीतम्। ऐसी दशा में किसी अन्य निश्चित प्रमाण दशाश्रतस्कन्धचर्णि पर नहीं है। इन तथ्यों को देखते हए ऐसा के अभाव में चूर्णिकार के नाम का असंदिग्ध निर्णय करना प्रतीत होता है कि दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि बृहत्कल्पचूर्णि से पूर्व अशक्य प्रतीत होता है। लिखी गई है और संभवत: दोनों एक ही आचार्य की कृतियाँ हैं। सन्दर्भ __ प्रस्तुत चूर्णि में भी भाष्य के ही अनुसार पीठिका तथा छह १. आर्हत आगमोनी चूर्णिऔं अने तेनुं मुद्रण-सिद्धचक्र,, भा.९, उद्देश हैं। पीठिका के प्रारंभ में ज्ञान के स्वरूप की चर्चा करते हुए अं.८, पृ. १६५ चूर्णिकार ने तत्त्वार्थाधिगम का एक सूत्र उद्धृत किया है। अवधिज्ञान के जघन्य और उत्कृष्ट विषय की चर्चा करते हुए २. आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग), पृ. ३४१ चूर्णिकार कहते हैं-- ३. दशवैकालिकचूर्णि, पृ. ७१ जावतिए त्ति जहण्णेणं तिसमयाहारगसुहमपणगजीवावगाहणामेत्ते ४. उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. २७४ उक्कोसेणं सव्वबहुअगणिजीवपरिच्छित्तेपासइ दव्वादि आदिग्गहेणेणं वण्णादि तमिति खेत्तं ण पेच्छति यस्मादुक्तम् रूपिष्ववधेः अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. १ (तत्त्वार्थ. 1-28 ) तच्चारूपि खेत्तं अतो ण पेच्छति।" ६. जैनग्रन्थावली, पृ. १२, टि. ५ अभिधान अर्थात् वचन और अभिधेय अर्थात् वस्तु इन ७. गणधरवाद, पृ. २११ दोनों के पारस्परिक संबंध की चर्चा करते हुए चूर्णिकार ने ८. गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. ३२-३३ भाष्याभिमत अथवा यह कहिए कि जैनाभिमत भेदाभेदवाद का प्रतिपादन किया है। अभिधान और अभिधेय को कथञ्चितभिन्न ९. जैन आगम, पृ. २७ और कञ्च त अभिन्न बताते हए आचार्य ने वक्ष शब्द के छह 10. a.A History of the CanonicalLiterature of the Jains, P.191 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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