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________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य समिति, परिष्ठापना, प्रतिलेखना आदि का अनेक आख्यानों एवं वरं प्रविष्टं ज्वलितं हुताशनं, न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम्। उद्धरणों के साथ प्रतिपादन किया गया है। एकादश वरं हि मृत्युः परिशुद्धकर्मणो, न शीलवृत्तस्खलितस्य जीवतम्॥1॥ उपासकप्रतिमाओं का स्वरूप समझाते हुए चूणिकार ने एत्थ अर्थात जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर लेना अच्छा है किन्त कहवि अण्णोवि पाढो दीसति३६ इन शब्दों के साथ पाठांतर भी। चिरसंचित व्रत को भंग करना ठीक नहीं। विशुद्धकर्मशील होकर दिया है। इसी प्रकार द्वादश भिक्षु-प्रतिमाओं का भी वर्णन किया मर जाना अच्छा है,किन्तु शील से स्खलित होकर जीना ठीक नहीं। गया है। तेरह क्रियास्थान, चौदह भूतग्राम एवं गुणस्थान, पंद्रह परमाधार्मिक, सोलह अध्ययन (सूत्रकृत के प्रथम श्रुतस्कन्ध पंचम अध्ययन कायोत्सर्ग की व्याख्या के प्रारंभ में के अध्ययन), सत्रह प्रकार का असंयम, अठारह प्रकार का व्रणचिकित्सा (वणतिगिच्छा) का प्रतिपादन किया गया है और अब्रह्म, उत्क्षिप्तना आदि उन्नीस अध्ययन, बीस असमाधिस्थान । कहा गया है कि व्रण दो प्रकार का होता है- द्रव्यव्रण और इक्कीस सबल (अविशुद्ध चरित्र), बाईस परीषह,तेईस सूत्रकृत भावव्रण। द्रव्यव्रण की औषधादि से चिकित्सा होती है। भावव्रण अतिचाररूप है जिसकी चिकित्सा प्रायश्चित्त से होती है। वह के अध्ययन (पुंडरीक आदि), चौबीस देव, पच्चीस भावनाएँ, छब्बीस उद्देश (दशाश्रुतस्कन्ध के दस, कल्प-बृहत्कल्प के छह प्रायश्चित्त दस प्रकार है--आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, और व्यवहार के दस),३६ सत्ताईस अनगार गुण, अट्ठाईस प्रकार व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक। चूर्णि का का आचराकल्प, उनतीस पापश्रुत, तीस मोहनीय स्थान, इकतीस मूल पा०२ मूल पाठ इस प्रकार है--सो य वणो दुविधो-दव्वे भावे य, सिद्धादिगुण, बत्तीस प्रकार का योगसंग्रह आदि विषयों का प्रतिपादन दव्ववणो ओसहादीहिं तिगिच्छिज्जति, भाववणो संजमातियारो करने के बाद आचार्य ने ग्रहण-शिक्षा और आसेवनशिक्षा--इन तस्स पायच्छित्तेण तिगिच्छणा, एतेणावसरेण पायच्छित्तं दो प्रकार की शिक्षाओं का उल्लेख किया है और बताया है कि परूविज्जति। वणतिगिच्छा अणुगमो य, तं पायच्छित्तं दसविहं....४० दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का विशद वर्णन जीतकल्प आसेवनशिक्षा का वर्णन उसी प्रकार करना चाहिए जैसा कि ओघसामाचारी और पदविभागसामाचारी में किया गया है-- सूत्र में देखना चाहिए। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग दो पद हैं। आसेवणसिक्खा जथा ओहसामायारीए पयविभागसामाचारीए काय का निक्षेप नाम आदि बारह प्रकार का है। उत्सर्ग का य वण्णितं।३८ शिक्षा का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए अभयकुमार निक्षेप नाम आदि छह प्रकार का है। कायोत्सर्ग के दो भेद हैंका विस्तृत वृत्त भी दिया गया है। इसी प्रसंग पर चूर्णिकार ने चेष्टाकायोत्सर्ग और अभिभवकायोत्सर्ग। अभिभवकायोत्सर्ग हार श्रेणिक, चेल्लणा, सुलसा, कोणिक, चेटक, उदायी, महापदमनंद, कर अथवा हराकर किया जाता है। हूणादि से पराजित होकर शकटाल, वररुचि, स्थूलभद्र आदि से संबंधित अनेक महत्त्वपूर्ण कायोत्सर्ग करना अभिभवकायोत्सर्ग है। गमनागमनादि के कारण ऐतिहासिक आख्यानों का संग्रह किया है। अज्ञातोपधानता, जो कायोत्सर्ग किया जाताहै वह चेष्टाकायोत्सर्ग है--सो पुण अलोभता, तितिक्षा, आर्जव, शुचि, सम्यग्दर्शनविशुद्धि, समाधान, काउसग्गो दुविधो चेट्ठाकाउस्सग्गो य अभिभवकाउस्सग्गो य, आचारोपगत्व, विनयोपगत्व, धृतमति, संवेग, प्रणिधि, सुविधि, अभिभवो नाम अभिभूतो वा परेण परं वा अभिभूय कुणति, संवर, आत्मदोषोपसंहार, प्रत्याख्यान, व्युत्सर्ग, अप्रमाद, ध्यान, परेणाभिभूतो तथा हूणादीहिं अभिभूतो सव्वं सरीरादि वोसिरामिति वेदना, संग, प्रायश्चित, आराधना, आशातना, अस्वाध्यायिक, काउस्सग्गं करेति, परं वा अभिभूय काउस्सग्गं करेति, जथा तित्थगरो प्रत्युपेक्षणा आदि प्रतिक्रमणसंबंधी अन्य आवश्यक विषयों का देवमणुयादिणो अणुलोमपडिलोमकारिणो भयादी पंच अभिभूय दृष्टांतपूर्वक प्रतिपादन करते हुए प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन काउस्सग्गं कातुं प्रतिज्ञां पूरेति, चेट्ठाकाउस्सग्गो चेट्ठातो निप्फण्णो का व्याख्यान समाप्त किया है। आत्मदोषोपसंहार का वर्णन जथा गमणागमणादिसु काउस्सग्गो कीरति...।४१ कायोत्सर्ग के करते हुए व्रत की महत्ता बताने के लिए आचार्य ने एक सुंदर . प्रशस्त और अप्रशस्त ये दो अथवा उच्छ्रित आदि नौ भेद भी होते श्लोक उद्धृत किया है जिसे यहाँ देना अप्रासंगिक न होगा। वह हैं।४२ इन भेदों का वर्णन करने के बाद श्रुत, सिद्ध आदि की श्लोक इस प्रकार है-३९ स्तुति का विवेचन किया गया है तथा क्षामणा की विधि पर प्रकाश डाला गया है। कायोत्सर्ग के दोष, फल आदि का वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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