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अनादि अनन्त विश्व में अनादिकाल से परिभ्रमण करने वाले संसारी जीवों के लिए संसारसागर को तैरकर मोक्ष का शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए सद्धर्म के अनेक प्रशस्त साधन हैं। उनमें सर्वोत्कृष्ट आलम्बन जिनबिम्ब और जिनागम हैं। संसार के प्रत्येक धर्म में प्रभु के दर्शन, वन्दन और पूजन को आत्मा की उन्नति का सर्वोत्कृष्ट निमित्त माना गया है। जगत् में प्रसिद्ध जैन धर्म में भी श्री जिनेश्वरदेव की अनुपम उपासना, सेवा-पूजा को आत्मोन्नति का प्रथम साधन बतलाया गया है। प्राकृतिक नियम के अनुसार विश्व के प्रणियों का विशेष आकर्षण मूर्ति - प्रतिमा की ओर देखा जाता है।
दर्शन - विशुद्धि का महान् आलम्बन जिनमूर्ति - जिनप्रतिमा है। वीतराग परमात्मा के, जिनेश्वरदेव के दर्शन - वन्दन - पूजन से ही आत्मदर्शन होता है। जैसे ज्योति से ज्योति प्रकट होती है, वैसे ही वीतराग परमात्मा के दर्शनादि से आत्मा की पहचान होती है। श्री दौलतरामजी ने कहा भी है कि
जय परम शान्त मुद्रा समेत । भवजन को निज अनुभूति हेत ।।
देवार्चन और स्नात्रपूजा
कुछ लोग कहते हैं कि पत्थर की मूर्ति अचेतन होने से कुछ भी लाभ नहीं कर सकती, तब तो यह मानना पड़ेगा कि सिनेमा, टी.वी. में जो दृश्य देखते हैं, वे कुछ भी हानि नहीं कर सकते क्योंकि वे भी अचेतन हैं। किन्तु हम देखते हैं कि वे अचेतन द्रव्य भी लोगों को कामी, विषयी, विकारी, खूनी, हिंसक, गुडे आदि बना रहे हैं, तब वीतराग प्रभु की मूर्ति भी हमें अकामी, निर्विषयी, निर्विकारी और अहिंसक क्यों नहीं बना सकेगी? कहा भी गया है
शरीर में जैसे चेतन है, नौकरी में जैसे वेतन है। 'नवल' सच मानो पत्थर में मूर्तिमन्त करुणानिकेतन है ।।
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मुनिराज श्री नरेन्द्रविजयजी के शिष्य मुनिश्रीजिनेन्द्र विजयजी 'जलज'.......
आप स्वयं अपनी बुद्धि से सोचें। कागज के दो टुकड़े आपके सामने पड़े हैं। एक कोरा है और दूसरे पर सौ रुपए की सरकारी छाप लगी हुई है। अब इन दोनों में से किस कागज की कीमत अधिक है? ऐसे ही कुशल कारीगरों द्वारा निर्मित पत्थर की मूर्ति में आचार्य महाराज द्वारा अंजनशलाका प्राण-प्रतिष्ठा विधि से प्राण प्रतिष्ठित किए जाते हैं तब वह मूर्ति साक्षात् परमात्मा का दिव्य रूप धारण करती है।
धर्म फूल खिले जीवन-बाग हैं। मेरी श्रद्धा के सुमन वीतराग हैं ।। 'नवल' मूर्ति के माध्यम से
साक्षात् प्रभुदर्शन का पराग है।
परमात्मा का स्वरूप निराकार है। वे निराकार होते हुए भी आकार में ही पाए जाते हैं, क्योंकि विश्व में किसी भी प्रकार की निराकार वस्तु भी आकृति से ही उपलब्ध होती है। ऐसे ही निराकार विश्वव्यापक प्रभु परमेश्वर से मिलने के लिए, उनकी मूर्ति का दर्शन - वंदन - पूजन करने के लिए मंदिर में जाना होता है। क्योंकि
आकृति - आकार बिना निराकार नहीं । और मूर्ति प्रतिमा बिना प्रभु परमात्मा नहीं ||
पूजा शब्द पूज् धातु से बना है, जिसका पूजन के अर्थ में प्रयोग होता है। अर्थात् मन से, वचन से और काया से फूल - फल, धूप, दीप, गन्ध, जल, अक्षत, नैवेद्य इत्यादि सामग्री द्वारा इष्टदेव की प्रतिमा का जो विशेष सत्कार कियाजाता है, उसी का नाम पूजा है
प्रतिमा पूजो प्रेम से है परमेश्वर रूप । 'नवल' पूजता पूज्य को, जागे परम स्वरूप ॥
श्री वीतराग प्रभु की मूर्ति की श्रद्धायुक्त भक्ति-भाव से अष्टप्रकारी आदि पूजा की जाती है, वही जिनमूर्तिपूजा है। विशेष सत्कार करने को ही मूर्तिपूजा कहते हैं। भक्त का तो यही लक्ष्य रहता है कि इन वीतराग प्रभु की मूर्ति द्वारा ही मैं वीतराग प्रभु के
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