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________________ - यतीन्द्रसरिस्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य चर्चा ही चर्चा करें, धारणा करे न कोय। प्राकृत भाषा में चारित्र के लिए चयरित्तं शब्द का प्रयोग हुआ है धर्म बिचारा क्या करे, धारे ही सुख होय।। जिसका अर्थ है विभाव रूप चय से आत्मा को रिक्त करना, अतः यह स्पष्ट है कि ज्ञानाराधना का सार है सम्यक खाली करना। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में लिखा हैचारित्र। 'चयस्स रिक्तिकरणं चरितं' अनपढ़ से पढ़ता भला, पढ़ता से भणवान। यथाख्यात निर्मोह भाव, छद्मस्थ तथा जिन को होता। भणता से गुणता भला, जो हो आचारवान।। करता संचित है कर्मरिक्त, चारित्र वही है कहलाता।। अनपढ़ से पढ़ने वाला अच्छा है, पढ़ने वाले से समझने संचित कर्म को रिक्त करने को ही चारित्र कहा गया है। वाला अच्छा है, समझने वाले से चिंतन करने वाला अच्छा है, तत्त्वार्थ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना चरण या पर सबसे अच्छा तो वह है जो उस पर आचरण करे। आचरण कहलाता है। अर्थात् मन, वचन, काया से शुभकर्मों में जिसमें सदाचरण की सुगन्ध हीं है, वह साक्षर भी बेकार प्रवृत्ति करना परमचारित्र है, सम्यक क्रिया है। तात्पर्य यह है कि है, क्योंकि उसको विपरीत होने में समय नहीं लगता। साक्षरा पाप एवं सावध प्रवृत्ति का त्याग कर मोक्ष हेतु संयम में शुभ या को उल्टा कर दें तो राक्षसा बन जाता है। वही आजकल हो रहा शुद्ध जो प्रवृत्ति की जाती है, उसी का नाम चारित्र है। मर्यादापूर्वक है। आज शिक्षा का प्रचार तो बहुत है किन्तु सद्संस्कार देने मन व इंद्रियों को पापप्रवृत्ति से रोककर पुण्य परिणति रूप बाह्य वाली, सच्चरित्र बनाने वाली नैतिक शिक्षा के अभाव में शिक्षितों क्रिया महाव्रत, अणुव्रत, समिति, गुप्ति, व्रत, प्रत्याख्यान, तप, में अनपढ़ों से भी अधिक उदंडता, उच्छंखलता व अनुशासनहीनता त्याग आदि व्यवहार चारित्र है। 'चारित्तं समभावो के अनुसार देखने को मिलती है। शिक्षा के साथ नैतिकता का होना अत्यंत समभाव में स्थित होना निश्चय चारित्र है। अथवा 'स्वरूपे चरणं आवश्यक है। एक पौराणिक कहानी है चारित्रम्।' अर्थात् स्वरूप में आत्मा के शुद्ध स्वभाव में लीन कौरव-पाण्डवों को गरु द्रोणाचार्य ने एक पाठ याद करने हाना च को कहा। पाठ था 'सत्यं वद, चर' सत्य बोलो, क्षमा करो। चारित्र दो प्रकार का कहा गया है अणगार चारित्र, आगार दूसरे दिन जब यह पाठ गुरुजी सबसे सुन रहे थे, तब सबने तो चारित्र अर्थात साधु का संयम और गृहस्थ का आंशिक संयम। पाठ सुना दिया पर युधिष्ठिर चुप रहा। गुरु ने कहा- क्या बात है? पाँच महाव्रत रूपी मुनिधर्म को अणगार चारित्र और श्रावक के तुम सबसे बड़े हो और तुमने अभी तक पाठ याद नहीं किया। बारह व्रत रूपी धर्म को आगार चारित्र कहा जाता है। अणगार दूसरे दिन भी युधिष्ठिर ने पाठ नहीं सुनाया तो गुरुजी ने उसके धर्म को सम्पूर्ण चारित्र और आगार धर्म को आंशिक चारित्र भी थप्पड़ मार दिया। कुछ दिन बाद महाराज धृतराष्ट्र पाठशाला का कहा जाता है। आगार का अर्थ गृह है, अतः अणगार का अर्थ निरीक्षण करने आए तब सबने तो पाठ सुना दिया पर युधिष्ठिर ने गहरहित मनि और आगार का अर्थ गृहस्थ होता है। आधा ही सनाया 'क्षम चर' पूछने पर बताया कि अभी मुझे यह चारित्र तेरह प्रकार का भी माना जाता है। पाँच समिति, पाठ आधा ही याद हुआ है। महाराज धृतराष्ट्र ने कहा- तुम , म तीन गुप्ति और पाँच महाव्रत के पालन रूप सम्यक् क्रिया को पाण्डवों में श्रेष्ठ हो, तुमसे तो हमें बहुत आशा है। युधिष्ठिर बोला, तेरह प्रकार का चारित्र कहते हैं। निरवद्य एवं निर्दोष प्रवृत्ति को मैं मात्र पाठ को रट लेने को याद करना नहीं मानता, उसे जीवन संयम कहते हैं। मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्तियों को में उतारने को ही याद करना मानता हूँ। थप्पड़ खाकर भी क्रोध रोककर संसार के कारणों से आत्मा की भली प्रकार से रक्षा नहीं आया इसलिए आधा पाठ याद हुआ मानता हूँ। युधिष्ठिर करने को गुप्ति कहते हैं। की इस बात से सब प्रभावित हुए। भविष्य में यही राजकुमार महान् सत्यवादी बना, जो धर्मराज के नाम से प्रसिद्ध हुआ। काम होने पर ही उपयोगपूर्वक चलना, किसी भी दूसरे जीव को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो, इस प्रकार उपयोगपूर्वक चारित्र शब्द चर् धातु से बना है। चर् अर्थात् चलना, गति . - चलने को ईर्या समिति कहते हैं। अंग्रेजों में कहावत हैकरना। आत्मा का विभाव से स्वभाव में गति करना चारित्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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