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________________ आनत - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - मनुष्य क्षेत्र के बहार ये पदार्थ नहीं होते है स्वर्ग, मृत्यु और पाताल लोक में शाश्वत जिननदी, द्रह, बादल, बादलनो गर्जारव, बादर अग्निकाय, चैत्य और जिन-प्रतिमाजी का विवरण तीर्थंकर, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती और दूसरे भी सामान्य मनुष्य के जन्म-मरण तथा मुहूर्त प्रहर दिवस चन्द्र-सूर्य परिवेश बिजली, चय, अपचय और उपराग इतने पदार्थ पीस्तालीस योजन स्थान स्थान चैत्य में प्रासाद प्रतिमाजी प्रतिमाजी प्रमाण मनुष्य क्षेत्र में होते हैं। यहां अढीद्वीप में पीसतालीस लाख योजन भमि में वीस सौधर्म १८० बत्तीस लाख सतावन करोड साठ लाख लाख योजन समद्रनी भूमि है, जहाँ समद्र नी भूमि में मनष्य नहीं ईशान १८० अट्ठाईस लाख । पचास करोड़ चालीस लाख है। मात्र अन्तर द्वीप है। वे थोड़े है तेनी विपक्षा नहीं करते है, सन्तकुमार २८० बारह लाख इक्कीस करोड़ साठ लाख इसलिए समुद्र नी भूमि रहित मात्र द्वीप नी पचीच लाख योजन महेन्द्र १८० आठ लाख चौदह करोड़ चालीस लाख भमि है. उसको एक भाग में आइ हुई पूर्वोक्त हाथनी राशि से बदा नालाख सात करोड़ बहत्तर लाख गुणा करने पर (९०९९५८१८८३४९९९९४९५ ९९८२ लांतक १८० पचास हजार । नब्बे लाख (९०) ५००००००) इतनी राशि होती है, ये भी उगण भीश अंक है। ये भी उपर के सात कोडा कोडी गर्मज मनुष्य के २९ आंक के शुक्र १८० चालीस हजार बहत्तर लाख (७२) राशि में भाग देने पर एक मनुष्य के भाग में एक हाथ भूमि भाग सहस्त्रार १८० छः हजार दस लाख अस्सी हजार आता है। उसमें सो ना बैठ नहीं सकते और भी पर्वत द्रह नदी वन १८० दो सौ छत्तीस हजार अटवी आदि बिना मनुष्य वाली जमीन भी बहुत छूट जाती है प्राणत १८० दो सौ छत्तीस हजार और थोड़ी भूमि में मनुष्य रहते हैं, इसलिए पूर्वोक्त संख्या में आरण्य १८० एक सौ पचास सत्ताईस हजार मनुष्य इतनी जमीन में समा सकते नहीं यह शंका होती है। अच्युत १८० एक सौ पचास सत्ताईस हजार उसका समाधान नीचे मुजब है, इसलिए वीतराग के वचन प्रथमत्रिक १२० एक सौ ग्यारह तेरह हजार तीन सौ वीस में कोई संदेह नहीं है। जो २९ आंक प्रमाण गर्भज मनुष्य कहे हैं, द्वितीयत्रिक १२० एक सौ सात बारह हजार आठ सौ चालीस वे सदा सर्वदा काल में इतने दूज है, मगर कम-ज्यादा नहीं, तृतीयत्रिक इसका समाधान यह है कि पुरुष से स्त्रीयो सतावीस गुणा ज्यादा १२० एक सौ बारह हजार है और गर्भधारण करने वाली ये ही हैं और उसके गर्भ में उत्कृष्ट पंचानुत्तर १२० पाँच छह सौ से नव लाख संख्या ये पण गर्मज मनष्य होते है और जघन्य ८४९७०२३ १५२९४४४७५० मध्यम पण होते हैं और स्त्रीनी राशि ज्यादा है, इसलिए उनके गर्भ में गर्भज मनुष्योंनि संख्या सर्वदा होती है। इसलिए गर्भ में राजेन्द्रकोष में यह पाठ है ज्यादा जीव होने चाहिए और स्वल्प जीव गर्भ के बाहर होते है। इसलिए जीव पृथ्वी में सख से रह सकते है। ऐसा कहने से नंदिसरे बावन जिनहरा, सुरगिरिसु तह असीई जैवक्रिया का लोप नहीं होता है और केवली कहे ते सत्य जानना कुंडल नगमणुसुत्तर रुअग वलए सु चउ चउरो चाहिए। पढ़ना, चिंतन करना और पूछना इसका नाम त्रिपक्षी उसु यारेसु चत्तारि असीई व स्खार पव्वयेसु तहा। विद्या कहते हैं। जगत में त्रिपक्षी विद्या नी कहेवत है, उससे वे अड्डे सत्तरिसय तीस वासहर सेलेसु संशयक बातों का समाधान होता है। वीसं गयदंतेसु दस जिण भवणाइ कुरु नगरवरे एवं च तिरियलोए अडवणा हुंति सयचउरो ।। సూరురురురురురురురురతరతరగతme chanుగారు సాదరువారందరుడand Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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