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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - संसार में विद्या, स्वभाव, गुण एवं क्रिया इन चार तत्त्वों से पुरुषों की पहचान होती है सत्यप्रियता, शिष्टाचार, विनय परोपकारिता और चित्त की विशुद्धता ये गुण जिनमें पाए जाएँ, वे कहीं छिपे नहीं रहते रंगे हुए वस्त्र धारण कर भी लिए जाएँ, परन्तु यदि आचरण ठीक नहीं हो रंगे हुए वस्त्र धारण करने से क्या फायदा। केवल बाहरी आडम्बर से काम नहीं चलता। उत्तम पुरुषों में गुण भी होने चाहिए। शास्त्रकारों को वस्त्रों को रंगने से कोई द्वेष नहीं है, परन्तु उनका अभिप्राय यह है कि साधु कहीं रंग, जगमगाहट, विचित्रता आदि के प्रभाव में पड़कर संयमभावना के प्रयत्न में शिथिल न पड़ जाए, अर्थात् साधुओं को बाह्य आकर्षणों से बचाने के लिए ही वस्त्र न रंगने की आज्ञा का आरम्भ हुआ है। इस प्रकार के शास्त्रार्थ एवं युक्तियुक्त तर्क से मुनिश्री ने स्पष्ट कर दिया कि जैन श्वेताम्बर साधुओं को श्वेत-वस्त्र ही धारण करने चाहिए। इस प्रकार के स्पष्टीकरण के परिणामस्वरूप श्री सागरानन्द सूरिजी एक रात्रि को दिन निकलने के बहुत पूर्व ही बिना सूचना दिए रतलाम से विहार कर गए। प्रातः वायुवेग से यह समाचार समस्त रतलाम नगर में फैल गया। मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. की कीर्ति भी उसी वेग से फैली और सर्वत्र इनकी प्रतिभा और विद्वत्ता की प्रशंसा होने लगी। दिन में शास्त्रार्थ में उपस्थित साक्षिजनों की सभा हुई और उन्होंने संस्कृत में प्रमाण-पत्र लिखकर तथा अपने हस्ताक्षरों से उसे प्रमाणित करके मुनि श्री यतीन्द्र विजयजी म.सा. को सादर समर्पित किया, जो कि इस प्रकार है - सम्मति-पत्रम् विदितमेवैतत्सर्वेषां सुधीमतां यदत्र रत्नपुर्यां (रतलाम-नगरे) श्रीमान् व्याख्यानवाचस्पतिर्यतीन्द्रविजयमुनिपुंगवः श्रीमतासाडम्बर चुन्चुना सागरानन्दसूरिणा साकं श्वेतपीतपटविषयमवलम्ब्य सप्तमासिकंयावच्छास्त्रार्थ कृतवान्। तत्र श्रीमद् यतीन्द्र विजयमुनिवरदर्शितास्साचाराङ्गाद्यनेक जैनागमीयप्रमाणपटलं पश्यद्भिरस्माभिः प्रणीयते यज्जैनश्रमणानां श्रमणीनञ्च श्वेतमानोपेतजीर्णप्रायवसनधारणमेव सनातनं शिष्टाचरित-ञ्चास्तीति। सागराननन्दसूरिणा तु प्रकाशितेषु मुद्रितास्मुद्रित (हेणडबिल) पत्रेषु जैनसाधूनां पीतवस्त्रधारणमागमासिद्धमिति कक्षीकृत निजपक्षसिषाधयिषया शास्त्रयमेकमपि प्रमाणं नास्सदर्शि, किन्त्वाश्विनमासीयामावस्यायां प्रकाशितपत्रे स्वयमप्यसौ सागरानन्द-सूरिर्निजपक्षस्थापनक्षमासागमोक्त प्रमाणमलभमनो जैनश्रमणानां श्वेताम्बरमेव शास्त्रमर्यादोपेतमित्यङ्गीकृतवान्। तत एव तत्पक्षः सर्वथा शास्त्रविरुद्धो निष्प्रमाणः स्वकपोलकल्पित एवं प्रतिभाति। अतः सकलैरपि जैनसाधुभिः साध्वीभिश्व जैनशास्त्रानुसारतो वस्त्रस्य वर्णपरावर्तनं भ्रमादपि कदापि नैव विधातव्यमिति यतीन्द्रविजय मुनिवरस्य साधीयान् पक्षः संमन्यते विद्वद्वरैरिति शम्। सकल जैनसाधुभिः श्वेतं मनोपेतं जीर्णप्रायं वसनमेव धार्यमित्येयं सम्मतिरेतेषां विद्वद्वराणां जागर्ति For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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