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________________ - यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व और शिलालेखों का भी पर्याप्त संग्रह किया है, जो इन ग्रंथों में यथास्थान सप्रसंग आए हैं। "श्री जैनप्रतिमालेखसंग्रह" नाम से आपके द्वारा संग्रहीत लेखों का एक स्वतंत्र ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ है। ___साहित्यरचना के साथ-साथ श्री यतीन्द्रसूरिजी ने १४ वर्ष की अवस्था से ही समाजसेवा का व्रत अंगीकार कर पैदल विहार करते हुए गाँव-गाँ कर सामाजिक व धार्मिक उपदेश देकर मानवता का कल्याण किया। आपने चारित्र, न्यायनीति, आचारव्यवहार, साहित्यसाधना, धर्मभावना, समाजसेवा आदि सभी क्षेत्रों में प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। आप के करकमलों से लगभग ५० प्रतिष्ठाअंजन शलाकायें, ११००० मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा, ५६ स्वलिखित पुस्तकों का प्रकाशन तथा ३५० सम्पादित एवं संशोधित ग्रन्थों का प्रकाशन हुआ है, जो अपने आप में एक कीर्तिमान् है। धर्म, नीति, समाज इतिहास तथा पुरातत्त्व की दृष्टियों से ये सभी ग्रंथ अधिक उपादेय एवं संग्रहणीय हैं। आप ने समाज के संगठन, समाज में शिक्षा का प्रचार, समाज के कार्य-कलापों के प्रकाशन व धर्म के प्रचार के उद्देश्य से त्रिस्तुतिक समाज का "शाश्वत धर्म" नाम से मासिक पत्र प्रारम्भ करवाया। तथा उसके आधिकारिक प्रचार-प्रसार पर जोर देकर समाजोत्थान का महत्त्वपूर्ण कार्य किया, जो चिरस्मरणीय रहेगा। स्थानस्थान पर धार्मिक पाठशालाएं भी इसी की कड़ी हैं। आपने ४० मुनिराजों एवं १५० साध्वियों को दीक्षा प्रदान कर जैन धर्म के शासन में प्रवेश करवाया। लक्ष्मणीतीर्थ, हरजी, आहोर, बागरा, सियाणा, थराद, भाण्डवपुर तीर्थ और वाली की अंजन शलाकाप्रतिष्ठा अत्यन्त प्रसिद्ध और प्रभावकारी रही है। इनमें से अधिकांश प्रतिष्ठानों का वर्णन "श्री गुरुचरित" नामक पुस्तक में है। प्रकाशित पुस्तकों के विक्रय के लिए "श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय", श्री मोहनखेड़ा तीर्थ प्रसिद्ध है। आप के तत्वावधान में सियाणा, गुढाबालोतान पालीताणा, खाचरौद, बागरा, आकोली, राणापुर तथा मोहनखेड़ा में उपधानतपों का आराधन हुआ। जिसमें सैकड़ों श्रावक-श्राविकाओं ने भाग लेकर आत्म कल्याण किया। - वि.संवत् १९९५ में राजस्थान के आहोर नगर में श्री संघ ने मिलकर आपको गच्छाधीश के पद पर आरूढ़ किया और आप श्रीयतीन्द्र विजय से आचार्य श्री मद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी हो गए। संक्षेप में आपके जीवन की मुख्य विशेषताएँ निम्नानुसार हैं - (१) अनवरत लेखन (२) विचारों में नवीनता व दृढ़ता (३) धुन के पक्के और लक्ष्य प्राप्ति में तत्पर (४) शरीर से हष्ट पुष्ट तथा विचारों से मजबूत और क्रान्तिकारी (५) गुण-पारखी और नीर-क्षीर विवेक के धनी (६) सरलता और गंभीरता का अद्भुत समावेश (७) स्पष्ट वक्ता तथा छलकपट से दूर (८) जीवन शैली धैर्यपूर्वक संघर्ष करना और कठिनाईयों का दृढ़तापूर्वक मुकाबला करना । मक दीक्षा शताब्दी के इस पावन अवसर पर परोपकारी आचार्य देव श्री यतीन्द्र सूरीश्वरजी को शत्: शत्: नमन् करते हुए मैं स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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