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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व-कृतित्व श्रीमद् यतीन्द्र सूरि - एक परिचय अचलचन्द जैन, Ex-Block Development officer (B.D.O.) सायला (जि. जालौर) लक्ष्मणी तीर्थ के संस्थापक, विद्वान् और इतिहासप्रेमी श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का जैनाचार्यों में विशिष्ट स्थान है, क्योंकि “दूसरों की भलाई ही मनुष्य का आभूषण है" इसे आपे जीवन में कर दिखाया। यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज का जन्म विक्रम संवत् १९४० में धौलपुर (राजस्थान) नगर में हुआ। आपका जन्म नामरामरत्न था। आपकी माताश्री का नाम चम्पाकँवर एवं पिताश्री का नाम रायसाहब ब्रजलाल जी था। अल्पायु में ही माताश्री एवं भ्राता के देहावसान के कारण इनके पिता अपनी ससुराल भोपाल में आकर बस गये। परन्तु चिन्ता एवं उदासीनता के कारण थोड़े वर्षों में ही ब्रजलालजी ने भी देह त्याग दी। पिताश्री के देहत्याग के पश्चात् इनका भरण-पोषण इनके मामा श्री ठाकुरदास करने लगे। इनके मामाश्री निःसंतान थे, परन्तु स्वभाव से चिड़चिड़े थे। वे छोटी-छोटी बातों पर रामरत्न को फटकार देते थे। कभी-कभी तो वे ऐसे शब्दों का भी प्रयोग कर बैठते थे, जो प्राणवान् प्रतिभाशाली बालक रामरत्न सहन नहीं कर पाता था। एक बार रामरत्न उज्जैन के सिंहस्थ मेले में गए और रात्रि को नाटक आदि देखकर देर से घर पहुँचे, जिस पर इनके मामाश्री अत्यन्त क्रोधित हुए और उन्होंने कहा, - “यही स्वभाव रहा तो मांगकर खाओगे। जो मैं नहीं होता तो तुम्हें रगड़-रगड कर मरना पड़ता।" मामाश्री के ये शब्द रामरत्न के हृदय में तीर की तरह चुभ गए और आपने तुरन्त मामा का घर त्याग दिया और महिदपुर में आकर रुके। महिदपुर में आपकी भेंट सरस्वतीपुत्र आचार्यदेव श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी से हुई। वहाँ रामरत्न ने विनयूर्वक आचार्यदेव से दीक्षा हेतु निवेदन किया। कहते हैं कि “होनहार विरवान के होत चिकने पात" रामरत्न की योग्यता और विनयशीलता को देखकर आचार्य श्री ने विहार में साथ रहने एवं योग्य अवसर पर दीक्षा देने का विश्वास दिलाया। म विक्रम संवत् १९५४ की आषाढ़ वदी २ को खाचरौद में आचार्य भगवन् श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी ने रामरत्न को भारी जनसमूह की उपस्थिति में भागवती दीक्षा प्रदान की और आपका नाम यतीन्द्र विजय रखा। दीक्षा के समय आपकी आयु मात्र १४ वर्ष की थी। आचार्यश्री की के निर्देशन में आपने तीव्रगति से परिश्रमपूर्वक अध्ययन प्रारम्भ किया। प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं में आपने जैनागम-सूत्रों, व्याकरण, छन्द, साहित्य तथा धर्म के सभी मूल ग्रन्थों का समुचित अध्ययन दस वर्ष की अवधि में पूर्ण कर ख्याति अर्जित की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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