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- यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - सही दिशा में प्रस्तुत हो। आपके प्रिय विषय रहे हैं, इतिहास, पुरातत्व एवं दर्शन । इसके साथ ही प्राचीन साहित्य का अनुसंधान एवं उसका सम्पादन कर आपने इस प्रकार के साहित्य की भी रचना की, जिससे धर्म एवं अध्यात्म के क्षेत्र में प्रचलित भ्रांत धारणाओं का निराकरण हो एवं वास्तविक तथ्य की प्रामाणिक जानकारी प्राप्त हो सके। आपने अपने विहार में आने वाले उन स्थलों का विशेष विवेचन किया, जिनका ऐतिहासिक एवं भौगोलिक महत्त्व रहा है। आपके द्वारा लिखित यतीन्द्रविहारदिग्दर्शन भाग १, २, ३, ४ मेरी गोड़काड़ यात्रा, मेरी नेमाड़ यात्रा तथा कोरटा का इतिहास ऐसी पुस्तके हैं, ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्व है। इन पुस्तकों में शिलालेख एवं ताम्रपत्र आदि का संकलन होने से पुरातात्त्विक महत्त्व प्रकट हुए बिना नहीं रहता। महापुरुषों के जीवन चरित्र एवं दार्शनिक साहित्य की भी रचनाएँ आपने की है। कुल मिलाकर कर आपके साहित्यरचना के माध्यम से समाज को धर्म एवं आध्यात्मिकता का सफल दिग्दर्शन कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, इसमें संदेह नहीं।
वस्तुतः आपने गुरुपद एवं आचार्यत्व की सार्थकता के लिये वह कार्य किया, जिसको सोमप्रभ सूरि ने परिभाषित करते हुए गुरु के संबंध में अपने सिन्दूरप्रकार ग्रंथ में लिखा है :मा
अवन्द्यमुक्ते पथि यः प्रवर्तते प्रवर्तयत्यजनं च निःस्पृहः
स एव सेव्यः स्वहितेषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं च क्षमः।। जो निस्पृह होकर अनिन्द्य मार्ग पर चलते हुए दूसरों को भी चला के तथा जो (इस भवसागर से पार होने के लिए) स्वयं तैर कर दूसरों को तैराने की क्षमता रखता हो आत्महितैषी का कर्तव्य है कि वह ऐसे ही गुरु का सेवन करे। इसी प्रकार आचार्य के संबंध में यह सूक्ति प्रचलित है कि
का आचिनोति हि शास्त्राणि स्वयमाचर यत्यपि।
स्वयमाचरति यस्मात् तस्मादाचार्य ईरितः। अर्थात् जो समस्त शास्त्रों का अध्ययन तदनुसार आचरण करता हो, वही आचार्य कहलाता है। इस दृष्टि से श्री जैनाचार्य श्रीमविजययतीन्द्रसुरिजी सफल एवं सार्थक आचार्य एवं गुरु थे। यह सत्य है ऐसे महानआचार्य एवं सद्गुरु के प्रति श्रद्धापूर्वक शत्-शत् नमन्।
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