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________________ यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व - कृतित्व - कुशल प्रवचनकार आचार्य भगवन् SHREE मनि श्री ऋषभचन्द्र विजयजी विद्यार्थी... यही सर्वमान्य तथ्य है कि इस धरती के समस्त प्राणियों में मानव सबसे श्रेष्ठ प्राणी माना गया है। अन्य प्राणियों की तुलना में उसकी अनेक उपलब्धियाँ है। इनमें सर्वोत्तम उपलब्धि वाणी है, विचारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता है। भावों का जहाँ तक प्रश्न है, वे पशओं में भी उत्पन्न होते हैं। किन्तु पश अपने भावों को अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं। यह क्षमता तो केवल मनुष्य जाति में ही है। वाणी के संबंध में भर्तृहरि ने कहा है वाण्येका समलंकरोति पुरुषं.. बाग्भूषणं भूषणम्। अर्थात् अगर पुरुष को अलंकृत करने वाला कोई सच्चा आभूषण या अलंकरण है तो वह वाणी है। यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वाणी कैसी होनी चाहिये जो वाणी विचारशून्य व अशुद्ध हो, उसका कोई महत्व नहीं वह निरर्थक है। एक पागल भी चिल्लाता रहता है, उसका कोई महत्त्व नहीं होता है। इसीलिए वाणी के पीछे विचार का तेजभाषा के पीछे भावों की शक्ति होना अनिवार्य है। वाणी अंधों की आँखें खोलने वाली और मुर्दो में प्राण फूंकने वाली होनी चाहिये। वाणी के संबंध में ऋग्वेद में कहा गया है र सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्रधीरा मनसा वाचमक्रमत। REFaim अत्रा सखाय सख्यानि जानते भद्रैषा लक्ष्मीनिहताधि वाणी १०/७१/२ मग काला TO अर्थात् जैसे सत्तू को सूप से शुद्ध करते हैं, वैसे ही मेधावी जन अपने बुद्धिबल से परिष्कृत की गयी भाषा को प्रस्तुत करते हैं, विद्वान लोग वाणी से होने वाली अभ्युदय को प्राप्त करते हैं, इनकी वाणी में मंगलमयी लक्ष्मी निवास करती है। जो भी व्यक्ति बोलता है वक्ता कहलाता है। किसी किसी वक्ता की भाषा इतनी लुभावनी होती है श्रोता वाह वाह कर उठते है,किन्तु ऐसी लच्छेदार भाषा विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। चीनी धर्मग्रंथ ताओ उपनिषद में कहा गया है 'हृदय से निकले हुए शब्द लच्छेदार नहीं होते और लच्छेदार शब्द कभी विश्वास करने लायक नहीं होते। ऐसा कहा जाता है कि साधारण व्यक्ति की वाणी वचन है तो विशिष्ट विचारकों की वाणी प्रवचन है। कारण यह है कि उनकी वाणीमें चिंतन, भावना, विचार और जीवन का दर्शन होता है। उनके बोलने में गूढ गहरा अर्थ निहित होता है। संभवत: इसी बात को ध्यान में रखते हुए संघदासगणि ने बृहत्कल्प भाष्य में कहा है म गणसट्रियस्स कयणं घयपरिसित्तब्व पावओ मवट। गणइणिस्म न सोहा नेहविहणो नह पर्दवो। REPREFERE rooo-sooooominoritoindorsed १७/ransinodrandoorinidironiousudasudidren For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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