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________________ यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - समाज एवं संस्कृति आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि में ऐसे संकेत भी मिलते हैं जिनके निवास वर्जित माना गया, जहाँ समीप में ही भिक्षु अथवा गृहस्प निवास अनुसार कुछ स्त्रियों ने गर्भवती होने पर भी भिक्षुणी-संघ में दीक्षा ग्रहण कर रहे हों । भिक्षुओं से बातचीत करना और उनके द्वारा लाकर दिये कर ली थी। मदनरेखा अपने पति की हत्या कर दिये जाने पर जंगल जाने वाले वस्त्र, पात्र एवं भिक्षादि को ग्रहण करना भी उनके लिए में भाग गयी और वहीं उसने भिक्षुणी-संघ में प्रवेश ले लिया। इसी प्रकार निषिद्ध ठहराया गया। आपस में एक दूसरे का स्पर्श तो वर्जित था ही, पद्मावती और यशभद्रा ने गर्भवती होते हुए भी भिक्षुणी-संघ में प्रवेश उन्हें आपस में अकेले में बातचीत करने का भी निषेध किया गया था। ले लिया था और बाद में उन्हें पुत्र-प्रसव हुए । वस्तुतः इन अपवाद. यदि भिक्षुओं से वार्तालाप आवश्यक भी हो, तो भी अग्र-भिक्षुणी को नियमों के पीछे जैन आचार्यों की मूलदृष्टि यह थी कि नारी और गर्भस्थ आगे करके संक्षिप्त वार्तालाप की अनुमति प्रदान की गयी थी। वस्तुतः शिशु का जीवन सुरक्षित रहे, क्योंकि ऐसी स्थितियों में यदि उन्हें संघ ये सभी नियम इसलिए बनाये गये थे कि कामवासना जागत होने एवं में प्रवेश नहीं दिया जाता है, तो हो सकता था कि उनका शील और चारित्रिक स्खलन के अवसर उप्लब्ध न हों अथवा भिक्षुओं एवं गृहस्थों जीवन खतरे में पड़ जाय और किसी स्त्री के शील और जीवन को के आकर्षण एवं वासना की शिकार बनकर भिक्षुणी के शील की सुरक्षा सुरक्षित रखना संघ का सर्वोपरि कर्त्तव्य था । अतः हम कह सकते हैं खतरे में न पड़े। कि नारी के शील एवं जीवन की सुरक्षा और उसके आत्मनिर्णय के किन्तु दूसरी ओर उनकी सुरक्षा के लिए आपवादिक स्थितियों अधिकार को मान्य रखने हेतु पति की अनुमति के बिना और गर्भवती में उनका भिक्षुओं के सानिध्य में रहना एवं यात्रा करना विहित भी मान होने की स्थिति में भी उन्हें जो भिक्षुणी-संघ में प्रवेश दे दिया जाता था- लिया गया था। यहाँ तक कहा गया कि आचार्य, युवा भिक्षु और वृद्धा यह नारी के प्रति जैन-संघ की उदार एवं गरिमापूर्ण दृष्टि ही थी। भिक्षुणियाँ तरुण भिक्षुणियों को अपने संरक्षण में लेकर यात्रा करें। ऐसी सामान्यतया साधना की दृष्टि से भिक्षु-भिक्षुणियों के आहार, यात्राओं में पूरी व्यूह-रचना करके यात्रा की जाती थी -सबसे आगे भिक्षाचर्या, उपासना आदि से सम्बन्धित नियम समान ही थे, किन्तु स्त्रियों आचार्य एवं वृद्ध भिक्षुगण, उनके पश्चात् युवा भिक्षु, फिर वृद्ध भिक्षुणियाँ, को प्रकृति और सामाजिक स्थिति को देखकर भिक्षुणियों के लिए वस्त्र उनके पश्चात् युवा भिक्षुणियाँ उनके पश्चात् वृद्ध भिक्षुणियाँ और अन्त में के सम्बन्ध में कुछ विशेष नियम बनाये गये । उदाहरण के लिए जहाँ युवा भिक्षु होते थे । निशीथचूर्णि आदि में ऐसे भी उल्लेख हैं कि भिक्षु सम्पूर्ण वस्त्रों का त्याग कर रह सकता था वहाँ भिक्षुणी के लिए भिक्षुणियों की शीलसुरक्षा के लिए आवश्यक होने पर भिक्षु उन मनुष्यों नग्न होना वर्जित मान लिया गया था । मात्र यही नहीं उसकी आवश्यकता की भी हिंसा कर सकता था जो उसके शील को भंग करने का प्रयास को ध्यान में, रखते हुए उसकी वस्त्र-संख्या में भी वृद्धि की गयी थी। करते थे। यहाँ तक कि ऐसे अपराध प्रायश्चित्त योग्य भी नहीं माने गये जहाँ भिक्षु के लिए अधिकतम तीन वस्त्रों का विधान था वहाँ भिक्षुणी थे। भिक्षुणियों को कुछ अन्य परिस्थितियों में भी इसी दृष्टि से भिक्षुओं के लिए चार वस्त्रों को रखने का विधान था । आगे चलकर आगमिक के सानिध्य में निवास करने की भी अनुमति दे दी गयी थी, जैसे -भिक्षुव्याख्या-साहित्य में न केवल उसके तन ढंकने की व्यवस्था की गयी, भिक्षुणी यात्रा करते हुए किसी निर्जन गहन वन में पहुँच गये हों अथवा बल्कि शील-सुरक्षा के लिए उसे ऐसे वस्त्रों को पहनने का निर्देश दिया भिक्षुणियों को नगर में अथवा देवालय में ठहरने के लिए अन्यत्र कोई गया, जिससे उनका शीलभंग करने वाले व्यक्ति को सहज ही अवसर स्थान उपलब्ध न हो रहा हो अथवा उन पर बलात्कार एवं उनके वस्त्रउपलब्ध न हो। इसी प्रकार शील-सुरक्षा की दृष्टि से भिक्षुणी को अकेले पात्रादि के अपहरण की सम्भावना प्रतीत होती हो। इसी प्रकार विक्षिप्तभिक्षार्थ जाना वर्जित कर दिया गया था। भिक्षुणी तीन'या उससे अधिक चित्त अथवा अतिरोगी भिक्षु को परिचर्या के लिए यदि कोई भिक्षु संख्या में भिक्षा के लिए जा सकती थीं। साथ में यह भी निर्देश था कि उपलब्ध न हो तो भिक्षुणी उसकी परिचर्या कर सकती थी। भिक्षुओं के युवा भिक्षुणी वृद्ध भिक्षुणी को साथ लेकर जाए । जहाँ भिक्षु ६ लिए भी सामान्यतया भिक्षुणी का स्पर्श वर्जित था किन्तु भिक्षुणी के किलोमीटर तक भिक्षा के लिए जा सकता था, वहीं भिक्षुणी के लिए कीचड़ में फँस जाने पर, नाव में चढ़ने या उतरने में कठिनाई अनुभव सामान्य परिस्थितियों में भिक्षा के लिए अति दूर जाना निषिद्ध था । इसी करने पर अथवा जब उसकी हिंसा अथवा शीलभंग के प्रयत्न किये जा प्रकार भिक्षुणियों के लिए सामान्यतया द्वार रहित उपाश्रयों में ठहरना भी रहे हों तो ऐसी स्थिति में भिक्षु भिक्षुणी का स्पर्श कर उसे सुरक्षा प्रदान वर्जित था । इन सबके पीछे मुख्य उद्देश्य नारी के शील की सुरक्षा थी। कर सकता था । जैन-परम्परा में आचार्य कालक की कथा इस बात का क्योंकि शील ही नारी के सम्मान का आधार था । अत: उसकी शील- स्पष्ट प्रमाण है । भिक्षुणी के शील की सुरक्षा को जैन भिक्षु-संघ का सुरक्षा हेतु विविध नियमों और अपवादों का सृजन किया गया है। अनिवार्य एवं प्राथमिक कर्त्तव्य माना गया था । नारी की शील-सुरक्षा के लिए जैन आचार्यों ने एक ओर ऐसे इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन-परम्परा में नारी के शीलनियमों का सृजन किया जिनके द्वारा भिक्षुणियों का पुरुषों और भिक्षुओं सुरक्षा के लिए पर्याप्त सतर्कता रखी गई थी। से सम्पर्क सीमित किया जा सके, ताकि चारित्रिक स्खलन की सम्भावनाएँ मात्र यही नहीं, जैनाचार्यों ने अपनी दण्ड-व्यवस्था और संघअल्पतम हों। फलस्वरूप न केवल भिक्षुणियों का भिक्षुओं के साथ व्यवस्था में भी नारी की प्रकृति को सम्यक् रूप से समझने का प्रयत्न और विहार करना निषिद्ध माना गया, अपितु ऐसे स्थलों पर भी किया है । पुरुषों के बलात्कार और अत्याचारों से पीड़ित नारी को उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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