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________________ पतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ समाज एवं संस्कृति निम्नतम गति में नहीं जा सकती, अत: वह उच्चतम गति में भी नहीं आगमिक व्याख्याओं के काल में जैन-परम्परा में भी पुरुष की महत्ता बढ़ी जा सकती । अतः स्त्री की मुक्ति सम्भव नहीं । और ज्येष्ठकल्प के रूप में व्याख्यायित किया गया। अंग-आगमों में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें साध्वी अपनी प्रवर्तिनी आचार्य और तीर्थंकर के अतिरिक्त दीक्षा में कनिष्ठ भिक्षु को वन्दन या नमस्कार करती हो, किन्तु परवर्ती आगम एवं आगमिक व्याख्यासाहित्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी के लिए भी सद्यः दीक्षित मुनि वन्दनीय है। (बृहत्कल्पभाष्य भाग ६ गावा ६३९९ ; कल्पसूत्र कल्पलता टीका) । सम्भवतः जैन- परम्परा में पुरुष की ज्येष्ठता का प्रतिपादन बौद्धों के अष्टगुरु धर्मों के कारण ही हुआ हो । ३. यह भी कहा गया है कि चंचल स्वभाव के कारण स्त्रियों ध्यान की स्थिरता नहीं होती है, अतः वे आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकतीं । · जैनधर्म संघ में नारी की महत्ता को यथासम्भव सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया गया है । मथुरा में उपलब्ध अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि धर्मकार्यों में पुरुषों के समान नारियाँ भी समान रूप से भाग लेती थीं। वे न केवल पुरुषों के समान पूजा, उपासना कर सकती थीं, अपितु वे स्वेछानुसार दान भी करती थीं और मन्दिर आदि बनवाने में समान रूप से भागीदार होती थीं। जैन-परम्परा में मूर्तियों पर जो प्राचीन अभिलेख उपलब्ध होते हैं उनमें सामान्य रूप से पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के नाम भी उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं । ४९ यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में कुछ लोग यह मानते हैं कि स्त्री को जिन प्रतिमा के स्पर्श, पूजन एवं अभिषेक का अधिकार नहीं है, किन्तु यह एक परवर्ती अवधारणा है, यह एक परवर्ती अवधारणा है, मथुरा के जैन-शिल्प में साधु के समान ही साध्वी का अंकन और स्त्री-पुरुष दोनों के पूजा सम्बन्धी सामग्री सहित अंकन यही सूचित करते हैं कि प्राचीन काल में जैन परम्परा में दोनों का समान स्थान रहा है । ४. एक अन्य तर्क यह भी दिया गया है कि स्त्री में वादसामर्थ्य एवं तीव्र बुद्धि के अभाव के कारण ये दृष्टिवाद के अध्ययन में अयोग्य होती है अतः वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकतीं। यद्यपि श्वेताम्बर - परम्परा ने भी उन्हें बौद्धिक क्षमता के कारण दृष्टिवाद, अरुणोपपात, निशीथ आदि के अध्ययन के अयोग्य अवश्य माना फिर भी उनमें 'मोक्षप्राप्ति' की क्षमता को स्वीकर किया गया । शारीरिक संरचना के कारण इसके लिए संयम-साधना के उपकरण के रूप में वस्त्र आवश्यक हों किन्तु आसक्ति के अभाव के कारण वह परिग्रह नहीं है, अतः इसमें प्रव्रजित होने एवं मुक्त होने की सामर्थ्य है । ३९ यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि मुनि के अचेलकत्व (दिगम्बर तत्त्व ) की पोषक यापनीय परम्परा ने स्त्री-मुक्ति और पंच महाव्रत आरोपण रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र (स्त्री-दीक्षा) को स्वीकार किया है। उससे वित द्राविड़, काष्ठा और माथुर संघों में भी स्त्री दीक्षा (महानतारोपण) को स्वीकार किया गया है। यद्यपि इस कारण वे मूल संघीय दिगम्बर- परम्परा की आलोचना के पात्र भी बने और उन्हें जैनाभास तक कहा गया। इससे स्पष्ट है कि न केवल श्वेताम्बरों ने अपितु दिगम्बर- परम्परा के अनेक संघों ने भी स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा को स्वीकार करके नारी के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया था । ४० यह निश्चित ही सत्य है कि आगमिक काल के जैनाचार्यों ने न केवल स्त्री-मुक्ति और स्त्री-दीक्षा को स्वीकार किया, अपितु मल्लि को स्त्री तीर्थकर के रूप में स्वीकार करके यह भी उद्घोषित किया कि आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च पद की अधिकारी नारी भी हो सकती है खी तीर्थंकर की अवधारणा जैनधर्म की अपनी एक विशिष्ट अवधारणा है जो नारी गरिमा को महिमामण्डित करती है । | ज्ञातव्य है कि बौद्धपरम्परा जो कि जैनों के समान ही श्रमण धारा का एक अंग थी, स्त्री के प्रति इतनी उदार नहीं बन सकी, जितनी जैन परम्परा । क्योंकि बुद्ध स्त्री को निर्वाण पद की अधिकारिणी मानकर भी यह मानते थे कि स्त्री बुद्धत्व को प्राप्त नहीं कर सकती है। नारी को संघ में प्रवेश देने में उनकी हिचक और उसके प्रवेश के लिए अष्टगुरु धर्मों का प्रतिपादन जैनों की अपेक्षा नारी के प्रति उनके अनुदार दृष्टिकोण का ही परिचायक है। यद्यपि हिन्दू धर्म में शक्ति उपासना के रूप में स्त्री को महत्त्व दिया गया है, किन्तु जैनधर्म में तीर्थंकर की जो अवधारणा है, उसको अपनी एक विशेषता है वह यह सूचित करती है कि विश्व का सर्वोच्च गरिमामय पद पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से प्राप्त कर सकते हैं। यद्यपि परवर्ती आगमों एवं आगमिक व्याख्या-साहित्य में इसे एक आश्चर्यजनक घटना कहकर पुरुष के प्राधान्य को स्थापित करने का प्रयत्न अवश्य किया गया। (स्थानांग, १० / १६० ) किन्तु Jain Education International १६ आगमिक व्याख्याकाल में हम देखते हैं कि यद्यपि संघ के प्रमुख के रूप में आचार्य का पद पुरुषों के अधिकार में था, किसी स्त्री के आचार्य होने का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु गणिनी प्रवर्त्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका आदि पद स्त्रियों को प्रदान किये जाते थे और वे अपने भिक्षुणी संघ की स्वतन्त्र रूप से आन्तरिक व्यवस्था देखती थीं। यद्यपि तरुणी भिक्षुणियों की सुरक्षा का दायित्व भिक्षु संघ को सौंपा गया था, किन्तु सामान्यतया भिक्षुणियाँ अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं रखती थीं, क्योंकि रात्रि एवं पदयात्रा में भिक्षु और भिक्षुणियों का एक ही साथ रहना सामान्यतया वर्जित था। इस सुरक्षा के लिए भिक्षुणी संघ में प्रतिहारी आदि के पद भी निर्मित किये गये थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि साधना के क्षेत्र में स्त्री की गरिमा को यथासम्भव सुरक्षित रखा गया फिर भी तथ्यों के अवलोकन से यह निश्चित होता है कि आगभिक व्याख्याओं के युग में और उसके पश्चात् जैन परम्परा में भी स्त्री को अपेक्षा पुरुष को महत्ता दी जाने लगी थी । नारी की स्वतन्त्रता नारी की स्वतन्त्रता को लेकर प्रारम्भ में जैनधर्म का दृष्टिकोण उदार था यौगलिक काल में स्त्री-पुरुष सहभागी होकर जीवन जीते थे। । आगम-ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा में राजाद्रुपद द्रौपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा For Private & Personal Use Only A www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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