SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1093
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - समाज एवं संस्कृति - का अंग नहीं बन पाये हैं यदि धर्म का अमृत जीवन में प्रविष्ट हो जाये करना पड़ता होगा, जिसको बाद में वे त्याग देते होंगे। स्वयं महावीर तो साम्प्रदायिकता के विष का प्रवेश ही नहीं हो सकता । हम एकता द्वारा प्रारम्भ में एकवस्त्र ग्रहण करना भी यही सूचित करता है । यद्यपि की दिशा में तभी गतिशील हो सकेंगे जब जीवन में अहिंसा, अनाग्रह, परम्परागत मान्यताएँ कुछ भित्र हैं। भगवती आराधना जैसे दिगम्बरों के नि:स्वार्थता और अपरिग्रह के तत्त्व विकसित होंगे। इनके विकास के द्वारा मान्य ग्रन्थों में भी अपवादरूप से मुनि के वस्त्र ग्रहण करने का साथ ही साम्प्रदायिक दौर्मनस्य अपने आप समाप्त हो जायेगा । यदि विधान है । ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि अचेलता प्रकाश आयेगा तो अंधकार अपने आप समाप्त हो जायेगा। प्रयत्न और पूर्ण अपरिग्रह का समर्थक दिगम्बर मुनि वर्ग भी परिस्थितिवश अन्धकार को मिटाने का नहीं, प्रकाश को प्रकट करने का करना है। परिग्रह के पंक में फँस गया । चौथी शताब्दी के पश्चात् से अधिकांश हमें प्रयत्न सम्प्रदायों को मिटाने का नहीं, जीवन में धर्म और विवेक को दिगम्बर मुनि न केवल जिनालयों में निवास करने लगे अपितु अपने नाम विकसित करने के लिए करना है। से जमीन आदि का दान प्राप्त करने लगे - और वस्त्र धारण कर राज सभाओं में जाने लगे। इन्हीं से दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारकों की परम्परा . जैनधर्म के साम्प्रदायिक मतभेद : उनके निराकरण के उपाय । का विकास हुआ है । मध्ययुग में इन भट्टारकों का ही सर्वत्र प्रभाव था और अचेलक दिगम्बर मुनि प्रायः विलुप्त ही हो गये थे । उनकी (अ) सचेलता और अचेलता का प्रश्न उपस्थिति के कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होते हैं । दिगम्बरत्व सर्वप्रथम हम श्वेताम्बर, दिगम्बर सम्प्रदायों के मतभेद को ही का समर्थन तो बराबर बना रहा किन्तु व्यवहार में उसका प्रचलन नहीं लें और देखें कि उसमें कितनी सार्थकता है । श्वेताम्बर और दिगम्बर रह सका । वस्तुत: जिन-मुद्रा को धारण करना सहज नहीं है । आज सम्प्रदायों में विवाद का मूल मुद्दा मुनि के नग्नत्व का है । क्योंकि से .४०-५० वर्ष पूर्व तक सम्पूर्ण भारत में दिगम्बर मुनियों की संख्या तीर्थप्रवर्तक प्रभु महावीर निर्वस्त्र (अचेल) रहे, यह बात दोनों को मान्य दस भी नहीं थी । वस्तुतः साधना एवं तप-त्याग के ऐसे उच्चतम है । आर्यिका (साध्वी), श्रावक और श्राविका की सवस्त्रला (सचेलता) आदर्श कभी लोक-व्यवहार्य नहीं रहे हैं । चाहे मनुष्य अपनी सुविधाभोगी भी दोनों को स्वीकार्य है । सवत्रता की समर्थक श्वेताम्बर-परम्परा के वृत्ति के कारण हो अथवा उनकी अव्यवहार्यता के कारण हो, उनसे नीचे प्राचीन आगमों में भी मुनि की अचेलता का न केवल समर्थन है अपितु अवश्य उतरा है । श्वेताम्बर मुनिवर्ग तो आगमोक्त मुनि आधार के शिखर अचेलकत्व की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा भी की गई है । जिन और से धीरे-धीरे काफी नीचे उतर आया है किन्तु दिगम्बर मुनि भी अनेक जिनकल्पी अर्थात् जिन के समान आचरण करनेवाले मुनि नग्न रहते थे, बातों में उस ऊँचाई पर स्थित नहीं रह सके, उन्हें भी नीचे उतरना पड़ा यह बात श्वे० परम्परा को भी मान्य है । वस्तुत: जब साम्प्रदायिक है। दुरभिनिवेश बढ़ा तो एक ओर श्वेताम्बरों ने जिनकल्प (अचेलकत्व) के वस्तुत: यह सब हमें यह बताता है कि मुनिधर्म की साधना विच्छेद की घोषणा कर दी तो दूसरी ओर दिगम्बरों ने मूलभूत आगम- के क्षेत्र में कुछ स्तर और उनके आरोहण का क्रम स्वीकार करना साहित्य को ही अमान्य कर दिया । इस विवाद का परिणाम यहाँ तक आवश्यक है । मुनि की निर्वस्वता की पोषक दिगम्बर परम्परा भी ऐलक हुआ कि वे० साहित्य में यह कह दिया गया कि जिनकल्पी मुक्त नहीं क्षुल्लक के रूप में ऐसे वर्गों को स्वीकार करती है जो केवल सवत्रता होता है । वह केवल स्वर्गगामी होता है, जबकि दिगम्बर आचार्यों ने यह के अतिरिक्त अन्य आचार-नियमों का पालन करने में दिगम्बर मुनि के कह दिया कि यदि तीर्थंकर भी सवस्त्र होगा तो मुक्त नहीं होगा। समान ही होते हैं और दिगम्बर समाज में उनकी मुनिवत् प्रतिष्ठा भी होती निष्पाक्षरूप से श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम-साहित्य का अध्ययन है। विवाद का प्रश्न मात्र इतना है कि उन्हें उच्च श्रेणी का गहस्थ माना करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वस्त्र-पात्र आदि उपाधियों का जाये या प्राथमिक श्रेणी का मुनि । निर्वस्त्रता के आत्यन्तिक आग्रह के विकास क्रमशः ही हुआ है । आचारांग मुनि के लिए मूलत: अचेलता कारण दिगम्बर परम्परा उन्हें मुनि मानने को तैयार नहीं होती - किन्तु का ही समर्थन करता है। अपवाद रूप में वह लज्जा-निवारणार्थ गुहांग यदि तटस्थ भाव से देखें तो उनके लिए 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग स्वयं ढकने के लिए एक कटि वस्त्र और शीत सहन नहीं कर सकने पर इस बात को सूचित करता है कि वे मुनियों के वर्ग के सदस्य हैं। शीतकाल में एक या दो अतिरिक्त वस्त्र ग्रहण करने की अनुमति देता क्षुल्लक शब्द का अर्थ 'छोटा' है चूँकि वे मुनि जीवन की साधना के है - उन्हें भी ग्रीष्मकाल में त्याग देने की बात कहता है । इस प्रकार प्राथमिक स्तर पर हैं, अत: उन्हें क्षुल्लक कहा जाता है । क्षुल्लक शब्द उसमें मुनि के लिए अधिकतम तीन और साध्वी के लिए अधिकतम चार छोटा मुनि का सूचक है, छोटे गृहस्थ का नहीं । श्वे० मान्य आगम वस्त्रों को ग्रहण करने का ही विधान है । आचारांग और समवायांग में उत्तराध्ययन में एक क्षुल्लकाध्ययन नाम से जो अध्याय है, वह मुनि मुनि को वस्त्र धारण करने की अनुमति तीन कारणों से दी गई है- आचार को ही अभिव्यक्त करता है । इसलिए क्षुल्लक मुनि ही होता है, १. इन्द्रिय विकार, २. लज्जाशीलता और ३. परीषह (शीत) सहन करने गृहस्थ नहीं । श्वेताम्बर आचार्यों ने क्षुल्लक का अर्थ बालवय का मुनि में असमर्थता । वस्तुतः महावीर के संघ में दीक्षित हुए युवा मुनियों को किया है, यह उचित नहीं लगता है । उसका अर्थ साधना के प्राथमिक इन्द्रियविकार और लोक-लज्जा के निमित्त प्रारम्भ में अधोवस्त्र धारण स्तर पर स्थित मनि करना अधिक यक्ति-संगत है । ऐसा लगता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy