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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - वस्तुत: जिसके सभी दोष विनष्ट हो चुके हैं और जिनमें सभी से चर्चा की थी, अब मैं उनकी क्रान्तिधर्मिता की चर्चा करना चाहूँगा। गुण विद्यमान हैं फिर उसे चाहे ब्रह्मा कहा जाये, चाहे विष्णु, चाहे जिन कहा जाय, उसमें भेद नहीं । सभी धर्म और दर्शनों में उस परमतत्त्व या क्रान्तदर्शी हरिभद्र परमसत्ता को राग-द्वेष, तृष्णा और आसक्ति से रहित विषय-वासनाओं हरिभद्र के धर्म-दर्शन के क्रान्तिकारी तत्त्व वैसे तो उनके सभी से ऊपर उठी हुई पूर्णप्रज्ञ तथा परम कारुणिक माना गया है, किन्तु ग्रन्थों में कहीं न कहीं दिखाई देते हैं, फिर भी शास्त्रवार्तासमुच्चय, हमारी दृष्टि उस परमतत्त्व के मूलभूत स्वरूप पर न होकर नामों पर टिकी धूर्ताख्यान और सम्बोधप्रकरण में वे विशेषरूप से परिलक्षित होते हैं । होती है और इसी के आधार पर हम विवाद करते हैं । जब कि यह नामों जहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय और धूर्ताख्यान में वे दूसरों की कमियों को का भेद अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता है । योगदृष्टिसमुच्चय में उजागर करते हैं वहीं सम्बोधप्रकरण में अपने पक्ष की समीक्षा करते हुए वे लिखते हैं कि उसकी कमियों का भी निर्भीक रूप से चित्रण करते हैं। सदाशिवः परं ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च । हरिभद्र अपने युग के धर्म-सम्प्रदायों में उपस्थित अन्तर और शब्देस्तद् उच्यतेऽन्वर्थाद् एक एवैवमादिभिः ।। बाह्य के द्वैत को उजागर करते हुए कहते हैं, "लोग धर्म-मार्ग की बातें अर्थात् सदाशिव, परब्रह्म, सिद्धात्मा, तथागत आदि नामों में करते हैं, किन्तु सभी तो उस धर्म-मार्ग से रहित हैं ।" मात्र बाहरी केवल शब्द भेद हैं, उनका अर्थ तो एक ही है। वस्तुत: यह नामों का विवाद क्रियाकाण्ड धर्म नहीं है। धर्म तो वहाँ होता है जहाँ परमात्म-तत्त्व की तभी तक रहता है जब तक हम उस आध्यात्मिक सत्ता की अनुभूति नहीं गवेषणा हो । दूसरे शब्दों में, जहाँ आत्मानुभूति हो, 'स्व' को जानने और कर पाते हैं । व्यक्ति जब वीतराग, वीततृष्णा या अनासक्ति की भूमिका पाने का प्रयास हो । जहाँ परमात्म-तत्त्व को जानने और पाने का प्रयास का स्पर्श करता है तब उसके सामने नामों का यह विवाद निरर्थक हो नहीं है वहाँ धर्म-मार्ग नहीं है । वे कहते हैं- जिसमें परमात्म-तत्त्व की जाता है। वस्तुत: आराध्य के नामों की भिन्नता भाषागत भिन्नता है, मार्गणा है, परमात्मा की खोज और प्राप्ति है, वही धर्म-मार्ग मुख्य-मार्ग स्वरूपगत भिन्नता नहीं । जो इन नामों के विवादों में उलझता है, वह है२८ । आगे वे पुनः धर्म के मर्म को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- जहाँ अनुभूति से वंचित हो जाता है । वे कहते हैं कि जो उस परमतत्त्व की विषय-वासनाओं का त्याग हो; क्रोध, मान, माया और लोभरूपी कषायों अनुभूति कर लेता है उसके लिये यह शब्दगत समस्त विवाद निरर्थक से निवृत्ति हो; वही धर्म-मार्ग है । जिस धर्म-मार्ग या साधना-पथ में हो जाते हैं। इसका अभाव है वह तो (हरिभद्र की दृष्टि में) नाम का धर्म है। वस्तुतः इस प्रकार हम देखते हैं कि उदारचेता, समन्वयशील और धर्म के नाम पर जो कुछ हुआ है और हो रहा है उसके सम्बन्ध में हरिभद्र सत्यनिष्ठ आचार्यों में हरिभद्र के समतुल्य किसी अन्य आचार्य को खोज की यह पीड़ा मर्मान्तक है । जहाँ विषय-वासनाओं का पोषण होता हो, जहाँ पाना कठिन है । अपनी इन विशेषताओं के कारण भारतीय दार्शनिकों घृणा-द्वेष और अहंकार के तत्त्व अपनी मुट्ठी में धर्म को दबोचे हुए हों, उसे के इतिहास में वे अद्वितीय और अनुपम हैं। धर्म कहना धर्म की विडम्बना है । हरिभद्र की दृष्टि में वह धर्म नहीं अपितु धर्म के नाम पर धर्म का आवरण डाले हुए कुछ अन्य अर्थात् अधर्म ही क्रान्तदर्शी समालोचक : जैन-परम्परा के सन्दर्भ में है। विषय-वासनाओं और कषायों अर्थात् क्रोधादि दुष्प्रवृत्तियों के त्याग के हरिभद्र के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में यह उक्ति अधिक सार्थक अतिरिक्त धर्म का अन्य कोई रूप हो ही नहीं सकता है। उन सभी लोगों है - 'कुसुमों से अधिक कोमल और वज्र से अधिक कठोर ।' उनके चिन्तन की, जो धर्म के नाम पर अपनी वासनाओं और अहंकार के पोषण का में एक ओर उदारता है, समन्वयशीलता है, अपने प्रतिपक्षी के सत्य को प्रयत्न करते हैं और मोक्ष को अपने अधिकार की वस्तु मानकर यह कहते समझने और स्वीकार करने का विनम्र प्रयास है तो दूसरी ओर असत्य और हैं कि मोक्ष केवल हमारे धर्म-मार्ग का आचरण करने से होगा, समीक्षा करते अनाचार के प्रति तीव्र आक्रोश भी है । दुराग्रह और दुराचार फिर चाहे वह हुए हरिभद्र यहाँ तक कह देते हैं कि धर्म-मार्ग किसी एक सम्प्रदाय की अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या अपने विरोधी के, उनकी समालोचना का बपौती नहीं है, जो भी समभाव की साधना करेगा वह मुक्त होगा, वह चाहे विषय बने बिना नहीं रहता है । वे उदार हैं, किन्तु सत्याग्रही भी । वे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई । वस्तुत: उस युग में समन्वयशील हैं, किन्तु समालोचक भी । वस्तुत: एक सत्य-द्रष्टा में ये दोनों जब साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश आज की भाँति ही अपने चरम सीमा पर थे, तत्त्व स्वाभाविक रूप से ही उपस्थित होते हैं । जब वह सत्य की खोज करता यह कहना न केवल हरिभद्र की उदारता की सदाशयता का प्रतीक है, है तो एक ओर सत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो अपितु उनके एक क्रान्तदर्शी आचार्य होने का प्रमाण भी है। उन्होंने जैनया उसके प्रतिपक्षी में, वह सदाशयतापूर्वक उसे स्वीकार करता है, किन्तु परम्परा के निक्षेप के सिद्धान्त को आधार बनाकर धर्म को भी चार भागों दूसरी ओर असत्य को, चाहे फिर वह उसके अपने धर्म-सम्प्रदाय में हो या में विभाजित कर दिया. उसके प्रतिपक्षी में, वह साहसपूर्वक उसे नकारता है । हरिभद्र के व्यक्तित्व का यही सत्याग्रही स्वरूप उनकी उदारता और क्रान्तिकारिता का उत्स (१) नामधर्म - धर्म का वह रूप जो धर्म कहलाता है किन्तु है। पूर्व में मैने हरिभद्र के उदार और समन्वयशील पक्ष की विशेष रूप जिसमें धार्मिकता का कोई लक्षण नहीं है । वह धर्मतत्त्व से रहित मात्र రురురురురురురురురురురురువారం. రుచaninుగరు Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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