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________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ -आधुनिक सन्दर्भ में जैन धर्म - वस्थ पर बल । दार्शनिकों ने अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के कारण कहीं-कहीं वैचारिक उदारता का परिचय दिया है, फिर भी ये सभी विचारक इतना तो मानते ही अन्य दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण हैं कि अन्य दर्शन ऐकान्तिक दृष्टि का आश्रय लेने के कारण मिथ्या जैन-परम्परा में अन्य परम्पराओं के विचारकों के दर्शन एवं दर्शन हैं जबकि जैन-दर्शन अनेकान्त-दृष्टि अपनाने के कारण सम्यग्दर्शन धर्मोपदेश के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित (इसिभासियाई हैं। वस्तुत: वैचारिक समन्वयशीलता और धार्मिक उदारता की जिस लगभग ई० पू० ३ शती) में परिलक्षित होता है । इस ग्रंथ में अन्य ऊँचाई का स्पर्श हरिभद्र ने अपनी कृतियों में किया है वैसा उनके पूर्ववर्ती धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रवर्तकों, यथा-नारद, असितदेवल, जैन एवं जैनेतर दार्शनिकों में हमें परिलक्षित नहीं होता । यद्यपि हरिभद्र याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को अर्हत् ऋषि कहकर सम्बोधित किया गया है के परवर्ती जैन दार्शनिकों में हेमचन्द्र, यशोविजय, आनन्दघन आदि और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है । निश्चय ही अन्य धर्मों और दर्शनों के प्रति समभाव और उदारता का परिचय देते हैं, वैचारिक उदारता एवं अन्य परम्पराओं के प्रति समादर भाव का यह अति किन्तु उनकी यह उदारता उन पर हरिभद्र के प्रभाव को ही सूचित करती प्राचीन काल का अन्यतम और मेरी दृष्टि में एकमात्र उदाहरण है। अन्य है। उदारहण के रूप में हेमचन्द्र अपने महादेव-स्तोत्र (४४) में निम्न परम्पराओं के प्रति ऐसा समादर भाव वैदिक और बौद्ध परम्परा के प्राचीन श्लोक प्रस्तुत करते हैं - साहित्य में हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । स्वयं जैन-परम्परा में भी यह भव-बीजांकुरजनना रागाद्याक्षयमुपागता यस्य । उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी । परिणामस्वरूप यह ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ।। महान् ग्रन्थ जो कभी अंग-साहित्य का एक भाग था, वहाँ से अलगकर वस्तुत: २५०० वर्ष के सुदीर्घ जैन-इतिहास में ऐसा कोई भी परिपार्श्व में डाल दिया गया । यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम-ग्रन्थों समन्वयवादी उदारचेता व्यक्तित्व नहीं है, जिसे हरिभद्र के समतुल्य कहा में तत्कालीन अन्य परम्पराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें अन्य जा सके । यद्यपि हरिभद्र के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक आचार्यों ने जैनदर्शनों और परम्पराओं के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के प्रभाव के परिणामस्वरूप उदारता का होती, जो ऋषिभाषित में थी। सूत्रकृतांग अन्य दार्शनिक और धार्मिक परिचय अवश्य दिया है फिर भी उनकी सृजनधर्मिता उस स्तर की नहीं मान्यताओं का विवरण तो देता है किन्तु उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत है जिस स्तर की हरिभद्र की है। उनकी कृतियों में दो-चार गाथाओं या कहकर उनकी आलोचना भी करता है । भगवती में विशेष रूप में मंखलि- श्लोकों में उदारता के चाहे संकेत मिल जायें किन्तु ऐसे कितने हैं गोशालक के प्रसंग में तो जैन-परम्परा सामान्य शिष्टता का भी उल्लंघन कर जिन्होंने समन्वयात्मक और उदार दृष्टि के आधार पर षड्दर्शनसमुच्चय, देती है । ऋषिभाषित में जिस मखलि-गोशालक को अर्हत् ऋषि के रूप में शास्त्रवार्तासमुच्चय और योगदृष्टिसमुच्चय जैसी महान् कृतियों का प्रणयन सम्बोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया किया हो । गया है। यहाँ यह चर्चा मैं केवल इसलिए कर रहा हूँ कि हम हरिभद्र की अन्य दार्शनिक और धार्मिक परम्पराओं का अध्ययन मुख्यतः उदारदृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल दो दृष्टियों से किया जाता है - एक तो उन परम्पराओं की आलोचना करने जैन-परम्परा में, अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना की दृष्टि से और दूसरा उनका यथार्थ परिचय पाने और उनमें निहित सत्य को समझने की दृष्टि से । आलोचना एवं समीक्षा की दृष्टि से लिखे गए जैन-दार्शनिकों में सर्वप्रथम सिद्धसेन दिवाकर ने अपने ग्रन्थों में ग्रन्थों में भी आलोचना के शिष्ट और अशिष्ट ऐसे दो रूप मिलते हैं। अन्य दार्शनिक मान्यताओं का विवरण प्रस्तुत किया है । उन्होंने बत्तीस साथ ही जब ग्रन्थकर्ता का मुख्य उद्देश्य आलोचना करना होता है, तो द्वात्रिंशिकाएँ लिखी हैं, उनमें नवीं में वेदवाद, दशवीं में योगविद्या, वह अन्य परम्पराओं के प्रस्तुतीकरण में न्याय नहीं करता है और उनकी बारहवीं में न्यायदर्शन, तेरहवीं में सांख्यदर्शन, चौदहवीं में वैशेषिकदर्शन, अवधारणाओं को भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करता है । उदाहरण के रूप में पन्द्रहवीं में बौद्धदर्शन और सोलहवीं में नियतिवाद की चर्चा है, किन्तु स्याद्वाद और शून्यवाद के आलोचकों ने कभी उन्हें सम्यक् रूप से प्रस्तुत सिद्धसेन ने यह विवरण समीक्षात्मक दृष्टि से ही प्रस्तुत किया है। वे करने का प्रयत्न नहीं किया है । यद्यपि हरिभद्र ने भी अपनी कुछ कृतियों अनेक प्रसंगों में इन अवधारणाओं के प्रति चुटीले व्यंग्य भी कसते हैं। में अन्य दर्शनों एवं धर्मों की समीक्षा की है। अपने ग्रन्थ धूर्ताख्यान में वस्तुत: दार्शनिकों में अन्य दर्शनों के जानने और उनका विवरण प्रस्तुत वे धर्म और दर्शन के क्षेत्र में पनप रहे अन्धविश्वासों का सचोट खण्डन करने की जो प्रवृत्ति विकसित हुई थी उसका मूल आधार विरोधी मतों भी करते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि वे न तो अपने विरोधी के का निराकरण करना ही था । सिद्धसेन भी इसके अपवाद नहीं हैं। साथ विचारों को भ्रान्त रूप में प्रस्तुत करते हैं और न उनके सम्बन्ध में अशिष्ट ही पं० सुखलालजी संघवी का यह भी कहना है कि सिद्धसेन की कृतियों भाषा का प्रयोग ही करते हैं । में अन्य दर्शनों का जो विवरण उपलब्ध है वह भी पाठ-भ्रष्टता और व्याख्या के अभाव के कारण अधिक प्रामाणिक नहीं है। यद्यपि सिद्धसेन दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों की रचना और उसमें हरिभद्र का स्थान दिवाकर, समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि हरिभद्र के पूर्ववर्ती यदि हम भारतीय दर्शन के समग्र इतिहास में सभी प्रमुख महान् है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012036
Book TitleYatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinprabhvijay
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1997
Total Pages1228
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size68 MB
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